मंडोला के सरोहा… उत्तराखंड में एक बात शिद्दत से महसूस की जा रही है कि यहां के लोगों में अपनी विरासत को लेकर वह जज्बा नहीं दिख रहा है जो दिखना चाहिए। यही कारण है पहाड़ों में अधिकतर मकान खंडहर में तब्दील दिखाई देते हैं। लोग चकाचौंध वाली दुनिया में रहना पसंद कर रहे हैं। गांव के गांव खाली हो गए। कई मंचों पर यह चिंता जताई जा चुकी है कि लोगों अपनी विरासत के प्रति उदासीन हो गए हैं। खैर, यह बात प्रसंगवश छिड़ गई है। मंडोला के सरोहा परिवार के जज्बे को देखकर लगा, काश! हम उत्तराखंडी भी अपनी विरासत माटी से उतना ही प्रेम करते जितना इस परिवार ने किया है। हम यहां पर सही और गलत के फेर में नहीं पड़ रहे हैं। इस पर भी बात नहीं करेंगे कि सरोहा परिवार की वजह से एक ऐसा प्रोजेक्ट अटका हुआ है, जो लाखों लोगों को जिंदगी को आसान बनाने वाला है। कानूनी मामलों में न जाकर, बस हम उस घर, माटी से लगाव की बात कर रहे हैं जो सरोहा परिवार ने दिखाई है।
पहले मामले को जान लेते हैं, बात 1990 के दशक की है। वीरसेन सरोहा अपने परिवार के साथ मंडोला के 1,600 वर्ग मीटर के भूखंड पर रहते थे। तब शायद ही किसी ने सोचा होगा कि यह जमीन आने वाले वर्षों में एक विशाल संघर्ष का केंद्र बन जाएगी। चारों ओर खेतों और छोटे-छोटे घरों के बीच उनका घर एक साधारण मकान था।
अब आते हैं वर्ष 1998 में… उत्तर प्रदेश हाउसिंग बोर्ड ने मंडोला हाउसिंग स्कीम के लिए हजारों एकड़ भूमि अधिग्रहण की घोषणा की। अधिकतर किसानों ने सरकार के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। लेकिन वीरसेन सरोहा ने मना कर दिया। उन्हें इस जमीन से बेहद लगाव था। वह मानते थे कि यह केवल जमीन का एक टुकड़ा भर नहीं है। उनकी विरासत है, उनके पूर्वजों की मेहनत की निशानी है। उन्होंने अपनी माटी से अलग होने की जगह कानूनी लड़ाई का रास्ता चुना। 2007 में वह इलाहाबाद हाईकोर्ट चले गए। यह फैसला उन्हें अकेला कर दिया। एक-एक कर आसपास के सभी घर और खेत खत्म होते गए। लेकिन वीरसेन अपने संकल्प पर अडिग रहे। उन्होंने अपने पूर्वजों की विरासत को किसी भी कीमत पर बचाने की ठानी। समय बीतता गया। मंडोला हाउसिंग स्कीम बन नहीं पाई।
अब आते हैं वर्ष 2017 में… दिल्ली-देहरादून एक्सप्रेसवे के निर्माण की योजना बननी शुरू हुई। एनएचएआई को जमीन चाहिए थी और हाउसिंग बोर्ड ने यह जमीन उनको सौंप दी। लेकिन, यहां भी सरोहा परिवार अडिग रहा। एनएचएआई के अफसरों ने सोचा कि काम शुरू कर देते हैं, यह मामला काम के यहां तक पहुंचने के पहले हल हो जाएगा। लेकिन, वह गलत साबित हुए। यह मामला आज भी इलाहाबाद हाईकोर्ट में चल रहा है। जबकि, दिल्ली-देहरादून एक्सप्रेसवे का दिल्ली से बागपत का निर्माण कार्य लगभग पूरा हो चुका है। आप तस्वीर में देख सकते हैं, दोनों तरफ चौड़े-चौड़े फ्लाईओवर के बीच तनहा खड़ा यहा मकान। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट को आदेश दिया है कि वह इस मामले को जल्द निस्तारित करे। क्योंकि, इस एक्सप्रेस के बन जाने से दिल्ली से बागपत की दूरी महज 30 मिनट में पूरी हो जाएगी। लाखों लोगों को इस एक्सप्रेस के चालू होने का बेसब्री से इंतजार है। मगर, इनमें से अधिकांश लोगों को नहीं मालूम यह क्यों नहीं चालू हो पा रहा है। यहां बात मुआवजे की नहीं है, विरासत की है। उस जज्बे की है जो 27 साल से बरकरार है। वीरसेन की इस लड़ाई का परिणाम क्या होगा, यह समय बताएगा, लेकिन एक सवाल सबके मन में है – क्या विकास के नाम पर विरासत को मिटा देना सही है?
दूसरी पीढ़ी ने संभाला मोर्चा
वीरसेना सरोहा 2007 से 2017 तक हाईकोर्ट में यह लड़ाई लड़ते रहे। 2017 में उनकी मृत्यु हो गई। लेकिन, मामला खत्म नहीं हुआ। उनकी विरासत को बचाने का संकल्प उनके पोते, लक्ष्यवीर सरोहा ने संभाल लिया। 2024 में उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की कि यह जमीन हाउसिंग बोर्ड की नहीं थी। इसलिए वह इसे एनएचएआई नहीं दे सकते। मामला अब सुप्रीम कोर्ट से इलाहाबाद हाईकोर्ट को भेजा गया है। 16 अप्रैल को इसकी सुनवाई होनी है।
दिल्ली से बागपत के बीच यात्रा को 30 मिनट से भी कम करने वाला यह एक्सप्रेसवे आधुनिक भारत की विकास गाथा है। इसमें लगभग 20 किमी का एक एलिवेटेड सेक्शन भी शामिल है, जो दिल्ली से बागपत होते हुए लोनी के माध्यम से निर्बाध कनेक्टिविटी प्रदान करेगा। लेकिन इस चमकती सड़क के नीचे दबने वाली एक साधारण किसान की आवाज भी है, जिसे सालों से सुना नहीं गया।