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    सर्वाइकल कैंसर…इलाज का असर हो रहा है या नहीं, आसानी से चल जाएगा पता

    सर्वाइकल कैंसर के मरीजों के लिए वरदान साबित हो सकता है नया ब्लड टेस्ट। ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज के डॉक्टरों ने किया शोध। 2022 में सर्वाइकल कैंसर के मरीजों के मामले में भारत दुनिया भर में दूसरे नंबर पर था। रिसर्च के क्लीनिकल ट्रायल के नतीजे नेचर ग्रुप के जर्नल ‘साइंटिफिक रिसर्च’ में प्रकाशित किया गया है।
    teerandajBy teerandajApril 15, 2025No Comments
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    सर्वाइकल कैंसर के मरीजों के लिए एक अच्छी खबर है। दिल्ली के ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज (एम्स) के डॉक्टरों ने एक ऐसा ब्लड टेस्ट तैयार किया है जिससे यह पता चल जाएगा कि इलाज का असर हो रहा है या नहीं। खास बात यह है कि यह टेस्ट टिश्यू बायोपसी की जगह ले सकता है। फिलहाल, बायोप्सी के सहारे ही इलाज की प्रगति की मॉनिटरिंग की जा रही है। रिसर्च के मुताबिक, इस टेस्ट में ब्लड सैंपल के जरिये ट्यूमर की कोशिकाओं का विश्लेषण किया जाता है। इस प्रक्रिया से शुरुआत में ही बीमारी पकड़ में आ जाएगी। रिसर्च के क्लीनिकल ट्रायल के नतीजों को नेचर ग्रुप के जर्नल ‘साइंटिफिक रिसर्च’ में प्रकाशित किया गया है।

    नए टेस्ट में क्या अहम है
    रिसर्च का अहम निष्कर्ष सर्वाइकल कैंसर के मरीजों में ह्यूमन पेपिलोमावायरस (एचपीवी) के डीएनए लेवल से जुड़ा है। एचपीवी एक ऐसा वायरस है जो बीमारी के सभी केसों की वजह बनता है। इस रिसर्च स्टडी में एम्स के डॉक्टरों ने सर्वाइकल कैंसर के 60 ऐसे मरीजों का ब्लड सैंपल लिया था जिन्हें अपना इलाज अभी शुरू ही कराया था। इसके साथ ही ऐसी दस स्वस्थ महिलाओं का भी ब्लड सैंपल लिया गया था जिन्होंने कंट्रोल ग्रुप बनाया था। स्टडी से पता चला कि इलाज के तीन महीनों के बाद कैंसर मरीजों में वायरल डीएनए का सघनता स्तर घट कर लगभग उस स्तर पर आ गया था जो स्वस्थ महिलाओं का था। शोधकर्ताओं का कहना है, इस स्टडी के नतीजे इसलिए अहम हैं क्योंकि सर्वाइकल कैंसर में ऐसा कोई खास एंटीजेन मार्कर नहीं होता है जो ये बता सके कि इलाज कारगर हो रहा है या नहीं। ट्यूमर में सुधार हो रहा है या नहीं। ऐसे में मरीज को कई बार बायोप्सी करानी पड़ती है। उसे अस्पताल में भर्ती होना पड़ता है। यह महंगा भी है और पीड़ादायक भी।

    लिक्विड बायोप्सी
    शोधकर्ताओं ने इस टेस्ट को लिक्विड बायोप्सी का नाम दिया है। बताया जा रहा है कि इसकी लागत लगभग 2500 रुपये आएगी। इसमें पारंपरिक बायोप्सी से कम दर्द सहना पड़ेगा क्योंकि इसमें मरीज का सिर्फ 5 मिली. खून लिया जाएगा। इस स्टडी में शामिल डॉक्टरों कहना है कि सर्वाइकल कैंसर की मॉनिटरिंग में ब्लड टेस्ट व्यापक कदम साबित हो सकता है। हालांकि, एक दिक्कत की ओर शोधकर्ताओं ने इशारा भी किया है। इनके मुताबिक, इस तरह जांच के लिए डायगोनोस्टिक सुविधाओं की जरूरत होती है जो भारत के ग्रामीण इलाकों के हेल्थ सेंटरों में उपलब्ध नहीं होते हैं। इसके लिए सरकार को ग्रामीण क्षेत्रों में अपना इंफ्रास्ट्रक्चर बढ़ाना होगा। हालांकि, एक बार जब किसी टेक्नोलॉजी का प्रसार हो जाता है तो उस तक पहुंच आसान हो जाती है।

    एम्स के डॉक्टर इस रिसर्च के अगले चरण में टेस्ट को और सटीक बनाने की कोशिश करेंगे। ये सर्वाइकल कैंसर की वजह बनने वाले वायरस के अलावा दूसरे म्यूटेशन शामिल करके ऐसा करेंगे। शोधकर्ताओं ने अध्ययन में बताया है कि दुनिया भर में सर्वाइकल कैंसर से जुड़ी तीन और अलग-अलग स्टडी प्रकाशित हुई हैं। उनमें भी ऐसे रिज़ल्ट दिखे हैं। इसलिए इस टेस्ट में संभावना नज़र आ रही है।

    क्या है सर्वाइकल कैंसर
    सर्वाइकल कैंसर सर्विक्स में होता है जो यूटेरस (गर्भाशय) को वेजाइना से जोड़ता है। डब्ल्यूएचओ के मुताबिक यह महिलाओं में होने वाला चौथा सबसे आम कैंसर है। भारत में ये महिलाओं को होने वाला दूसरा सबसे सामान्य कैंसर है। 2022 में सर्वाइकल कैंसर के मरीजों के मामले में भारत दुनिया भर में दूसरे नंबर पर था। सर्वाइकल कैंसर की रोकथाम के लिए वैक्सीन बन चुकी है। लेकिन, भारत महिलाओं में मौत की यह एक बड़ी वजह है। हर आठ मिनट में एक महिला की मौत सर्वाइकल कैंसर से होती है। हालांकि, विशेषज्ञ कहते हैं, देश में सर्वाइकल की वैक्सीन बहुत कम महिलाओं को लगाई गई है। इस वजह से यहां पर मौत का आंकड़ा काफी ज्यादा है। साथ ही एक बड़ा कारण यह भी है कि अधिकतर महिलाएं इलाज के लिए डॉक्टर के पास तभी पहुंचती हैं जब बीमारी गंभीर हो चुकी होती है।

    क्यों होता है सर्वाइकल कैंसर
    विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मुताबिक 99 प्रतिशत सर्वाइकल कैंसर के मामले एचपीवी वायरस से जुड़े होते हैं जो यौन संपर्क से शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। भले ही एचपीवी से बहुत ज्यादा संक्रमण से कोई लक्षण न दिखे लेकिन बार-बार कोई इस वायरस से संक्रमित होता है तो बाद में जाकर ये सर्वाइकल कैंसर का रूप ले लेता है। कई अध्ययनों में से ये पता चला है कि एचपीवी वैक्सीन वायरस से होने वाले संक्रमण को दस साल तक रोक सकती है। विशेषज्ञ मानते हैं ये बचाव लंबे समय तक भी रहता है। बच्चों को ये वैक्सीन उनके यौन सक्रिय होने से पहले लगाने की जरूरत होती है। क्योंकि वैक्सीन सिर्फ संक्रमण को रोक सकती है। ये वायरस से छुटकारा नहीं दिलाती।

    डब्ल्यूएचओ के मुताबिक भले ही एचपीवी संक्रमण सर्वाइकल कैंसर में बदल जाता है लेकिन अभी भी ये इस बीमारी का ऐसा रूप है जिसका इलाज सबसे ज्यादा संभव है। बाद के स्टेज में भी कैंसर का पता चलने के बाद भी इसे उचित इलाज और देखभाल से नियंत्रित किया जा सकता है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय इसे यूनिवर्सल टीकाकरण कार्यक्रम में शामिल करने पर काम कर रहा है। इस कार्यक्रम के तहत मुफ्त टीकाकरण होता है। सितंबर 2022 में भारत सरकार ने देश में ही विकसित पहली एचपीवी वैक्सीन सर्वावैक लॉन्च की थी। इसके बाद उसी साल केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों को लिखा कि वो 9 से 14 साल की उम्र की लड़कियों को स्कूलों और हेल्थकेयर सेंटरों के जरिये इसका टीका लगवाए। हालांकि, इसकी रफ्तार अभी सुस्त है। डॉक्टर 9 से 14 साल के लड़कों को भी एचपीवी से बचाव का टीका लगाने पर जोर देते हैं ताकि इस वायरस से जुड़े कैंसर को फैलने से रोका जा सके।

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