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    Home»ओपिनियन»एक मैदानी का पहाड़नामा … इन पहाड़ों की खूबसूरती संजोएंगे ना !
    ओपिनियन

    एक मैदानी का पहाड़नामा … इन पहाड़ों की खूबसूरती संजोएंगे ना !

    अगर आप देहरादून में कई साल से रह रहे है तो आपने महसूस किया होगा कि पिछले 10-15 साल में क्या परिवर्तन आया है। अब पहले की तरह न सड़कों पर सुकून से दौड़ती साइकिलें दिखती हैं और न वो आराम वाले शहर की फीलिंग ही बची है। यह सबकुछ तेजी से हुआ और लगातार हो रहा है लेकिन हम इसकी वजह को समझना नहीं चाहते हैं।
    teerandajBy teerandajApril 12, 2025Updated:June 5, 2025No Comments
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    • प्रतिमा मिश्रा –

    जो हाल दिल्ली-नोएडा का गर्मी के करीब 8-9 महीनों में होता है वो किसी से छिपा नहीं है। हमारे महानगर आबादी से ‘ओवरफ्लो’ हो चुके हैं। लोअर मीडियम क्लास शहर से थोड़ी दूरी पर ठिकाना खोज रहा है और जो खर्च कर सकते हैं वे पास के पहाड़ों की तरफ भाग रहे हैं। उत्तराखंड में भीड़ बढ़ने से दून घाटी की प्रकृति बदल रही है। यह केवल एक शहर की बात नहीं है, उत्तराखंड के पहाड़ी और मैदानी इलाकों की प्रकृति भी बदल रही है। एक उदाहरण से समझिए… अगर आप देहरादून में रहते हैं तो अपने घर की छत पर जाइए और चारों तरफ के पहाड़ों को ध्यान से देखिए। पहाड़ों पर बने घरों से आती टिमटिमाती रोशनी आपको अलग ही दुनिया में लेकर चली जाएगी, लेकिन दिव्य अनुभूति देने वाला ये नजारा अब घटने लगा है क्योंकि देहरादून के रिहायशी इलाकों में भी फ्लैट कल्चर घुसपैठ कर रहा है। कोई इसे रोक नहीं सकता है क्योंकि डिमांड है। डिमांड है तो महानगर बनाने की कोशिश होगी ही। कोई महानगर के खिलाफ भी नहीं है लेकिन हर शहर की अपनी फिजा, कल्चर और खूबसूरती होती है। केवल कंकरीट के जंगल हमें नहीं खड़े करने हैं। अगर नोएडा-गुरुग्राम की तरह देहरादून और पहाड़ के दूसरे शहर भी बन गए तो हमारी खासियत हमसे छिन जाएगी, जिसके लिए हर कोई देवभूमि आना चाहता है।

    वजह क्या है?
    इसकी वजह जलवायु परिवर्तन है और यहां हर शहर, हर देश और पूरी पृथ्वी की बात है। हर हाथ इस दिशा में आगे बढ़ेगा तभी भागीरथ प्रयास दिखेगा। लेकिन हम भारतीयों की एक और आदत है जब तक ‘फायर नहीं होता, हम ‘रॉकेट नहीं बनते। देश की राजधानी दिल्ली का मौसम अब अपने जेहन में लाइए, ठंड के मौसम में प्रदूषण यानी एक्यूआई यानी एयर क्वॉलिटी इंडेक्स की खबरों से अखबार भरे रहते हैं। हर इलाकों की लिस्ट दी जाती है। कारण और पूर्वानुमान बताए जाते हैं। टीवी, रेडियो हो या सोशल मीडिया, हर प्लेटफॉर्म पर एक चर्चा होती रहती है। लेकिन विडंबना देखिए कि जलवायु परिवर्तन की खबर जानने में लोगों की रुचि नहीं होती है। कारण एक ही है, अगर प्रदूषण उन्हें तत्काल प्रभाव से प्रभावित कर रहा तो वे उसे लेकर गंभीर हैं लेकिन जलवायु परिवर्तन धीरे-धीरे हो रहा है, मौसम में बदलाव दिख रहा है लेकिन अभी वे सीधे तौर पर मुसीबतें नहीं झेल रहे तो उसकी इतनी फिक्र नहीं है।

    यह भी पढ़ें : धूप की गुणवत्ता में हो रही गिरावट, सौर ऊर्जा उत्पादन होगा प्रभावित

    यह दुर्भाग्यपूर्ण, लेकिन सच्चाई है। यही वजह है कि मीडिया की खबरों में जलवायु परिवर्तन का चैप्टर सिर्फ कोरम पूरा कर रहा है। ग्लेशियर पिघल रहा हो या किसी तटीय शहर के 2050 तक समुद्र में समाहित होने की चेतावनी हो, अचानक मौसम बदलना हो या गर्मी का कालखंड बढ़ना, लोग बस नजर घुमा लेते है। अगर आपको इसका उदाहरण देखना है तो ऐसे विषय पर छपने वाली पत्रिकाओं से हालत देख लीजिए। रीडर ही नहीं है, अखबारों में भी बहुत कम ऐसा देखा जाता है जब ऐसी खबरें पहले पन्ने पर जगह पाएं।

    जलवायु परिवर्तन हकीकत है और वैश्विक स्तर पर यह एक गंभीर चुनौती बनती दिख रही है। इसके प्रभाव दिल्ली जैसे महानगरों में तीव्र रूप से महसूस किए जाते हैं। यहां के पत्रकार इन चुनौतियों को जनता तक पहुंचाने, उनकी धारणा बनाने और नीतिगत बहस को प्रभावित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। हालांकि, जलवायु परिवर्तन पर प्रभावी ढंग से रिपोटिंग में कई अड़चनें हैं, जिसमें विश्वसनीय स्रोतों तक सीमित पहुंच, विशेष प्रशिक्षण की कमी और वैज्ञानिक डेटा को रोचक अंदाज में तब्दील करने की जटिलता शामिल है। यही वजह है कि आने वाले 20 या 30 साल बाद की चुनौती को हम हल्के में लेते हैं या नजरअंदाज करने की गलती कर रहे है।

    देहरादून की बात
    अकेले देहरादून की बात करें तो शहरीकरण और औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया में तेजी आने के कारण तापमान बढ़ रहा है। मीडिया रिपोर्ट्स बताती हैं कि दिसंबर 2024 में देहरादून में हुई बारिश ने पिछले 10 साल का रिकॉर्ड तोड़ा था। जून 2024 में देहरादून का तापमान 41.5 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया था, जो पिछले 10 सालों में सबसे ज्यादा था।

    हीट एक्शन प्लान चाहिए
    पर्यावरण कार्यकर्ता और देहरादून स्थित थिंक टैंक सोशल डेवलपमेंट कम्युनिटीज फाउंडेशन के संस्थापक अनूप नौटियाल उत्तराखंड में बढ़ती गर्मी को लेकर लगातार चिंता जता रहे हैं। उन्होंने देश के दूसरे शहरों की तरह राज्य में भी देहरादून आदि शहरी के लिए हीट एक्शन प्लान बनाने की जरूरत पर बल दिया। उन्होंने कहा कि सरकार और मीडिया में आने वाली गर्मी को लेकर चर्चा करने की जरूरत है। वह चिंतिंत भाव से कहते हैं, पता नहीं ये गर्मी देवभूमि में क्या तबाही मचाएगी?

    आप हालात की गंभीरता को समझिए जब एक्सपर्ट पहाड़ी राज्य में गर्मी को लेकर अभी से इतनी चिंता जता रहे हैं तो भविष्य में क्या परिणाम होगा। अनूप नौटियाल ने 30 मार्च की सुबह गई नागरिकों के साथ देहरादून की सड़कों पर उत्तराखंड के पेड़ों की अंधाधुंध और रिकॉर्ड कटाई को लेकर शवयात्रा निकाली। उनके विरोध का यह अपना तरीका था। क्या हम जागेगे? वह साफ कहते हैं कि चारधाम रूट को गोवा बनाने की कोशिश क्यों हो रही है।

    अब दिल्ली की स्थिति समझिए
    आंकड़े गवाह है कि दिल्ली साल दर साल गर्म होती जा रही है। तापमान के साथ ऐसे क्षेत्रों (हीट आइलैंड) की संख्या बढ़ रही है, जहां पारा दिल्ली के औसत तापमान से अधिक जा रहा है। एक अध्ययन में पता चला है कि पिछले 10 साल के दौरान दिल्ली के औसत तापमान में भी 7 डिग्री की वृद्धि दर्ज की गई है। मई 2014 में औसत तापमान 30-33 डिग्री सेल्सियस के बीच था। कुछ इलाके ऐसे थे, जहां का तापमान 33.1 से 34.0 डिग्री सेल्सियस रहा लेकिन 2022 में दिल्ली के ज्यादातर इलाकों का तापमान 40 डिग्री सेल्सियस से ऊपर रहा, पूर्वी और मध्य दिल्ली के कुछ इलाके ही 36-40 डिग्री सेल्सियस के बीच रहे।

    मेनस्ट्रीम से गायब है ये मुद्दे
    ऐसे विषयों को जनता के साथ-साथ मीडिया भी तवज्जो नहीं देता है। वजह कोई आधिकारिक रूप से नहीं चलाएगा क्योंकि कारण व्यावसायिक है। जलवायु परिवर्तन पर फुल पेज की जानकारी भी नहीं पढ़ी जाती है। जबकि उतना विज्ञापन करोड़ रुपये दे सकता है। ऐसे में मौसम में आमूल-चूल बदलाव देखने के बाद भी पत्रकार ऐसी खबरों को कवर करने से बचते हैं। पत्रकार जुनूनी तरीके से काम करते हैं। अगर आर्टिकल पब्लिश होते समय छोटा हो जाए या गैरजरूरी तरीके से फिलर के तौर पर अंदर के पन्नों में सिमट जाए तो पत्रकार को दुख होता है। यह उसकी सोच समझ गंभीरता पर भी सवाल होता है। साफ है जब बस या स्कोप नहीं तो कोई ऐसी रिपोर्ट क्यों करेगा? उसके अलावा दिल्ली और अधिकांश जगहों के पत्रकारों के सामने कुछ अड़चनें भी आती हैं। पहला, विश्वसनीय स्रोतों और विशेषज्ञों तक पहुंच न्यूनतम होती है। यह जलवायु संबंधी मुद्दों की सटीक और व्यापक जानकारी देने की उनकी क्षमता को प्रभावित करती है। मुख्यधारा के मीडिया समूह से संपादकीय समर्थन भी कम ही रहता है, इससे पर्यावरण और जलवायु संबंधी विषयों पर गहन रिपोर्टिंग के लिए पत्रकार प्रोत्साहित नहीं होते हैं।


    समाधान से पहले हमें समाज के हर स्तर यानी राजनीतिक, अधिकारी वर्ग, विद्यालय, अस्पताल सभी जगहों पर जलवायु परिवर्तन की समस्या को गंभीरता के साथ स्वीकार करना होगा। इसकी शुरुआत सरकारी प्रोत्साहन से हो सकती है। ऐसी रिपोर्ट को महत्व दिया जाए तो जलवायु परिवर्तन की समस्याओं और समाधान को सामने लाती है। ऐसे पत्रकारों को सम्मानित करने के साथ ही मीडिया समूहों में भी यह भावना पैदा करनी होगी कि आम जनमानस के लिए ऐसी स्टोरीज, कार्यक्रम और लेख रोचक अंदाज में पेश किए जाएं। अच्छा हो कि हम अपने शहर की खासियत को मिटने या छिपने न दें। हम स्वागत सबका करेंगे लेकिन अपने अंदाज में…।

    पहाड़नामा
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