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    अतुल्य उत्तराखंड

    Inspirational Stories … सबसे बड़ा रोग क्या कहेंगे लोग!

    आम लोगों में भी कुछ बहुत खास होते हैं। ऐसे ही लोग समाज को नई दिशा दिखाते हैं। इसलिए जरूरी हो जाता है, ऐसे लोगों के संघर्ष को जानना। वैसे तो संघर्ष और पहाड़ की महिलाएं एक दूसरे की पर्यायवाची हैं। संघर्ष वह महिला भी करती है, जो पहाड़ों में रहती है, खेती करती है, घास लाती है, अपने परिवार की देखरेख करती है और वह महिला भी, जो पति के साथ कई सुनहरे सपने लेकर शहर आ जाती है और फिर कुछ ऐसा होता है कि सभी सपने एक पल में टूट जाते हैं।
    teerandajBy teerandajAugust 8, 2024Updated:August 8, 2024No Comments
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    Inspirational Stories : कहते हैं छोटा-बड़ा संघर्ष सबके जीवन में आता है। इसमें कोई निखर जाता है तो कोई बिखर जाता है। यह एक ऐसी ही महिला की कहानी है, जिसके संघर्ष ने उन्हें ऐसा निखारा कि आज हजारों महिलाओं को साथ जोड़कर सामूहिकता की नई इबारत लिख रही हैं। आज बात ऐसी ही एक घरेलू महिला की, जिसने पति के एक्सीडेंट में लकवाग्रस्त हो जाने के बाद एक अलग तरह का संघर्ष किया और अपनी मेहनत के दम पर एक मुकाम हासिल किया। ये कहानी है हल्द्वानी की गीता सत्यवली की। गीता की गिरिजा बुटीक एसएचजी है और उनसे 45 हजार महिलाएं जुड़ी हैं।

    महिलाओं को यह नहीं सोचना चाहिए कि हमारा घर बहुत संपन्न है और हमारे पति गवर्नमेंट जॉब वाले हैं या प्राइवेट जॉब वाले हैं, बिजनेस वाले हैं। इसलिए उन्हें कोई काम सीखने की जरूरत नहीं है। हर महिला के अंदर एक हुनर होना जरूरी है। आत्मनिर्भर होना बहुत जरूरी है। – गीता सत्यवली, संस्थापक गिरिजा बूटीक

    करीब 20 साल पहले गृहिणी रहीं गीता सत्यवली का जीवन आराम से कट रहा था। छोटी बच्ची, पति के साथ-साथ घर पर जरूरी सुख-सुविधाएं। लेकिन, एक हादसे ने उनकी दुनिया बदल दी। गीता के पति मेरठ में एक बड़े होटल में कुक का काम करते थे, ड्यूटी से घर आते समय ट्रक ने गीता के पति की बाइक को टक्कर मार दी। इससे सत्यवली के पति गंभीर रूप से जख्मी हो गए। नौ महीने तक कोमा में रहे। जब कोमा से बाहर आए तो उनकी यादाश्त जा चुकी थी। कमर के नीचे का हिस्सा लकवा मार गया था। डॉक्टरों ने कहा कि इनको पहाड़ों पर ले जाइए। इसके बाद गीता बीमार पति और छोटी बच्ची के साथ मेरठ से रानीखेत चली आईं। पति की तबीयत बिगड़ने पर हल्द्वानी में फिर ऑपरेशन किया गया। तब आय का कोई साधन नहीं रह गया था। ऐसे में डॉक्टरों ने मदद की और गीता हॉस्पिटल में ही 1200 रुपये महीने पर काम करने लगीं। गुजारा मुश्किल था, साथ में एक छोटी बेटी थी, लिहाजा आय के दूसरे स्रोत भी तलाशने जरूरी हो गए।

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    इसी जद्दोजहद के बीच एक सहेली के साथ सिलाई सीखने लगी। मैंने सिलाई सीखी, फिर कई लोगों के मुफ्त में कपड़े, बैग सिले। इसके बाद कई महिलाओं को फ्री में सिलाई सिखाई। जिन्हें मैंने सिलाई सिखाई वो मेरे साथ जुड़ने लगीं। यह संख्या बढ़ती गई। मेरे साथ 50-60 महिलाएं जुड़ गईं लेकिन, मेरे पास कोई साधन नहीं था। एक सिलाई मशीन से क्या कर लेती। लेकिन, मेरा प्रयास जारी रहा।
    गीता बताती हैं – बात 2014 की है, किसी ने सुझाव दिया कि स्थानीय विधायक और तत्कालीन सरकार में वित्त मंत्री इंदिरा हृदेश से मिल लो, हो सकता है कि कुछ अच्छा काम मिल जाए। मैं वित्त मंत्री से मिलीं, उन्हें अपने बारे में बताया। अपने बनाए हुए बैग भी दिखाए। वित्त मंत्री को मेरे बैग खूब पसंद आए। उन्होंने कहा, तुम मशीनें ले जाओ। अगर तुम्हारे साथ 50-60 महिला जुड़ी हैं तो तुम समूह क्यों नहीं बना लेती। मैंने वित्त मंत्री से कहा, मैडम मुझे इसके बारे में कुछ नहीं पता है। मैडम ने मुझे उनसे मिलवाने वाली महिला से कहा कि इन्हें समूह के बारे में बताओ। फिर मुझे रजिस्ट्रेशन से लेकर तमाम बातें बताईं गईं। मैंने अपने समूह की जब शुरुआत की तो वित्त मंत्री को ही उद्घाटन के लिए बुलाया। उन्होंने उस समय मुझे 10 मशीनें दीं। साथ ही पांच मशीनें ग्राम प्रधान की तरफ से मिलीं। वित्त मंत्री ने उस समय मुझे 2 लाख रुपये अनुदान भी दिलाया। स्टेट बैंक से पांच लाख रुपये का लोन भी पास कराया। उन्होंने बैंक वालों से कहा कि अगर इस संघर्षशील महिला को लोन नहीं दिया तो बैंक किसलिए हैं। मुझ लगता है कि अगर नीयत साफ हो तो बैंक हंसकर लोन देता है। इस तरह मेरा समूह काम करने लगा। ईमानदारी से कहूं तो आज जो कुछ हूं, वित्त मंत्री इंदिरा हृदेश की वजह से हूं।

    गीता कहती हैं, हमारी कुलदेवी गिरिजा मां के नाम से हमने अपने समूह का नाम गिरिजा बूटीक रखा। जब इसका रजिस्ट्रेशन कराया तो मेरे दिमाग में खुद की कहानी चल रही थी। मैं भी एक हाउस वाइफ थी। पति को अच्छी खासी सैलरी मिलती थी। कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि एक सेकंड में मेरी जिंदगी बदल जाएगी। मैं यही सोच को लेकर चली। अगर मेरे साथ ऐसा हो सकता है तो यह किसी के भी साथ हो सकता है। मेरा मकसद है हर महिला को आत्मनिर्भर बनाना। महिलाओं को यह नहीं सोचना चाहिए कि हमारा घर बहुत संपन्न है और हमारे पति गवर्नमेंट जॉब वाले हैं या प्राइवेट जॉब वाले हैं, बिजनेस वाले हैं। इसलिए उन्हें कोई काम सीखने की जरूरत नहीं है। हर महिला के अंदर एक हुनर होना जरूरी है। आत्मनिर्भर होना बहुत जरूरी है। मैं महिलाओं को आत्मनिर्भर बनने के लिए मोटिवेट करती हूं। उन्हें कहती हूं कि खुद तो आत्मनिर्भर बनो ही, अपने साथ कम से कम 10 और लोगों को भी आत्मनिर्भर बनाओ। महिलाओं की पहचान अक्सर किसी की बीवी, बहन, चाची, मां के तौर पर ही होती है। क्या खुद की कोई पहचान नहीं होती? आज मेरे साथ 45 हजार के करीब महिलाएं जुड़ी हैं।

    बदलाव की उड़ान को पंख

    गीता कहती हैं कि नाबार्ड के संपर्क में आना उनके लिए गेम चेंजर साबित हुआ। साल 2018 में भीमताल में नाबार्ड के ऑफिस में गई और वहां अपनी संस्था के बारे में बताया। मैंने वहां कहा कि अगर नाबार्ड से कोई सहायता मिल सकती है तो प्लीज दिलाइए। मैंने तत्कालीन अधिकारी विभोर कुमार को एक बार अपने किसी कार्यक्रम में आने का आग्रह किया। मैंने उन्हें लगातार फॉलो किया। आखिरकार, विभोर सर हमारे प्रोग्राम में आए। जिसे देखकर वह काफी भावुक हो गए। कहा-वाह मैडम आप लोगों के साथ काम किया जाएगा। आप अपना प्रप्रोजल नाबार्ड में दीजिए। हमने अपना प्रप्रोजल दिया। इसके बाद हमें नाबार्ड से सेल्फ हेल्प ग्रुप का प्रोजेक्ट मिला। कोरोना के दौरान हमारे समूह की महिलाओं ने मास्क बनाए। उत्तराखंड सरकार ने हमारे सभी मास्क खरीद लिए। कोरोना काल में हमारे समूह से जुड़ीं सभी महिलाओं ने आठ से 10 हजार रुपये महीना कमाया। इसके बाद हम नाबार्ड के एलईडीपी कार्यक्रम से जुड़े और एलईडी बल्ब बनाना सीखा। गीता कहती हैं कि ट्रेनिंग तो कहीं से मिल जाएगी। लेकिन, नाबार्ड हमें ट्रेनिंग के साथ बाजार भी उपलब्ध कराता है। जब बाजार मिल जाता है कि महिलाओं का आय का स्रोत बन ही जाता है।

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    गीता के मुताबिक, मैं अपने समूह की सभी महिलाओं से कहती हूं कि हौसला नहीं खोना चाहिए। हिम्मत न हारो। लोग क्या कहेंगे, यह तो कभी सोचना ही नहीं, क्योंकि क्या कहेंगे लोग, यही सबसे बड़ा रोग है। हमारे समूह की महिलाएं हर त्योहार, जैसे-रक्षाबंधन पर राखी बनाती हैं। जन्माष्टमी पर झूले, दीवाली पर मोमबत्ती बनाती हैं। हमारी बनाई एलईडी की मांग लगातार बढ़ती जा रही है। हमें काफी अच्छे ऑर्डर आ रहे हैं। गीता बताती हैं, अब तो मेरी बेटी भी मेरा साथ देती है। वह मास्टर इन सोशल वर्क कर रही है। एक बार हम बैंक में लोन के सिलसिले में गए। बैंक ने मेरी बेटी से कहा कि आप यूथ हो, कुछ हटकर आइडिया बताओ जिसपर हम आपको लोन दें। इसके बाद बेटी ने एलईडी बनाने का आइडिया दिया। बैंक को यह काफी पसंद आया। इससे समूह की महिलाओं को काफी फायदा हो रहा है। आय बढ़ गई है।

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