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    Home»एडीटर स्पेशल»Land Law in Uttarakhand: खिसक रही मूल निवासियों के पांव तले जमीन!
    एडीटर स्पेशल

    Land Law in Uttarakhand: खिसक रही मूल निवासियों के पांव तले जमीन!

    teerandajBy teerandajJanuary 27, 2024Updated:January 27, 2024No Comments
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    उत्तराखंड में कड़े भूमि-कानून (Land Law in Uttarakhand) के अभाव में यहां के मूल निवासियों के पांव के नीचे से जमीन खिसकती जा रही है। हिमालयी राज्यों में उत्तराखंड अकेला है, जहां जमीनों की खरीद-फरोख्त की खुली छूट है। उत्तर पूर्व के राज्य संविधान के अनुसूची-6 के तहत संरक्षित हैं और हिमाचल प्रदेश में 1972 में टेनेंसी एंड लैंड रिफॉर्म एक्ट-1972 की धारा-118 लागू है, जबकि जम्मू-कश्मीर, अनुच्छेद-370 के तहत संरक्षित रहा। इस विवादित अनुच्छेद के हटने के बाद भी कोई वहां जमीन खरीदने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है।उत्तराखंड की तराई में पहले ही बाहरी लोगों ने थारू-बुक्सा की जमीनें हड़प लीं। जौनसार-बावर में भी ऐसा ही कुछ करने का प्रयास किया जा रहा है। बिना जमीन के मानव जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। इस धरती पर जितनी भी मानव सभ्यताएं पनपी हैं, उनके उदय और अस्त के पीछे इन दो ही संसाधनों की उपलब्धता कारण रही है। यही जमीन हमारे समाज और उससे भी बाहर विभिन्न देशों के बीच झगड़े का कारण है। वनों में घूमने वाले मानव समूहों में जिनके पास जमीन नहीं रहीं, वे जमींदारों के गुलाम जैसे रहे। उनकी पीढ़ियां आज भी पिछड़ी हुई हैं।

    जय सिंह रावत, वरिष्ठ पत्रकार

    नब्बे के दशक में जब उत्तराखंड आंदोलन छिड़ा तो पहाड़ के लोगों ने अपनी संस्कृति के संरक्षण के लिए उत्तराखंड राज्य की मांग के साथ ही नए राज्य को संविधान के अनुच्छेद-371 के तहत संरक्षण देने की मांग उठाई, ताकि कोई बाहरी धन्ना सेठ या जमीनों का सौदागर भोले-भाले पहाड़ के लोगों की जमीन हड़पकर उन्हें भूमिहीन न कर दे और पहाड़ की जनसांख्यिकी न बदल डाले। लेकिन लोगों को क्या पता था कि एक दिन इस हिमालयी राज्य के कुछ लोग जमीन के सौदागरों के हाथों में खेलने लगेंगे और पहाड़ियों की बेशकीमती जमीन को दलालों के सुपुर्द कर देंगे।

    उत्तराखंड का एक बुद्धिजीवी वर्ग अगामी लोकसभा चुनाव से पहले भू-कानून को एक राजनीतिक मुद्दा बनाने का प्रयास कर रहा है। इस मुद्दे के पीछे निश्चित रूप से काफी आवाजें भी उठ रही हैं। भले ही राजनीति करने वालों द्वारा मुद्दे को भटकाने के लिए जमीन के मुद्दे को सांप्रयादिक रंग देने का प्रयास किया जा रहा है, ताकि कोई उनसे न पूछे कि आखिर आपने पहाड़ के लोगों की जमीनें लुटवाने के लिए प्रपंच क्यों रचे और किसने कहां-कहां गरीबों की कितने जमानें हड़प लीं? अगर सचमुच हिमाचल प्रदेश के काश्तकारी और भूमि सुधार अधिनियम-1972 की धारा-118 की जैसी व्यवस्था उत्तराखंड में होती तो स्वाभाविक था कि राज्य के पहाड़ी क्षेत्रों की जमीनों की खरीद-फरोख्त पर रोक के कारण पहाड़ की जनसांख्यिकी नहीं बदलती और पहाड़ की संस्कृति संरक्षित रहती।अब एक ओर तो जमीनों की खरीद-फरोख्त पर बंदिशें ढीली कर दींगईं और अब हल्ला होरहाहै कि पहाड़ में एक धर्म विशेष के लोग जमीनें खरीद रहे हैं।

    दरअसल उत्तराखंड में जब नारायण दत्त तिवारी के नेतृत्व में पहली निर्वाचित सरकार का गठन हुआ तो उन पर उत्तराखंड की मूल भावना का दबाव था। इसीलिए राज्य का नाम उत्तरांचल से उत्तराखंड भी हुआ। इसी दबाव में तिवारी जी ने उत्तरांचल (उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम-1950) (संशोधन) अध्यादेश, 2003 जारी कराया। यह 2003 का अध्यादेश संख्या 6 था। इसमें मूल अधिनियम में धारा 3(क) जोड़ी गई। इसी प्रकार मूल अधिनियम की धारा 143(2), 143(3) में संशोधन के साथ ही 154 में धारा (ख) जोड़ी गई। यह संशोधन सबसे अधिक महत्वपूर्ण था क्योंकि इस में कहा गया था कि ‘कोई भूमि (दीवानी न्यायालय की बिक्री अथवा भू-राजस्व के बकाये के रूप में वसूली के लिए हस्तांतरण सहित) विक्रय, उपहार, वसीहत, पट्टा कब्जे सहित बंधक अथवा अधिकृत अथवा अन्य प्रकार से अकृषक व्यक्ति को भूमि का हस्तांतरण वैध नहीं होगा।’ यह अध्यादेश संपूर्ण राज्य के लिए था और इसमें कहीं नहीं लिखा था कि यह बंदिश नगरीय क्षेत्र में लागू नहीं होगी।

    तिवारी सरकार द्वारा लाया गया यह अध्यादेश आना ही था कि उत्तराखंड (उस समय उत्तरांचल) में बबाल मच गया। बवाल भी स्वाभाविक ही था, क्योंकि राज्य में सबसे कमाऊ व्यवसाय भूमि की खरीद-फरीख्त का था जो अब भी है। विवाद बढ़ने पर एनडी तिवारी को अध्यादेश पर फिर से विचार के लिए साल 2003 में विजय बहुगुणा की अध्यक्षता में एक समिति का गठन करना पड़ा। बहुगुणा के संयोजक वाली समिति ने नए भूमि कानून के मसौदे में ऐसे प्रावधान करने की सिफारिश की जिनसे भूमि व्यवसायियों तथा बाहरी लोगों को कोई आपत्ति नहीं हुई। इस समिति की सिफारिश पर कुछ भू-व्यवसाय फ्रेंडली प्रावधानों के साथ ही उत्तरांचल (उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम, 1950) अनुकूलन एवं उपांतरण आदेश, 2001 (संशोधन) बिल में धारा 2 भी जोड़ी गई, जिसमें कहा गया कि ‘उन क्षेत्रों के अलावा, जो किसी नगर निगम, नगर पंचायत, नगर परिषद और छावनी परिषद क्षेत्रों की सीमा के अंतर्गत आते हैं और समय-समय पर सम्मिलित किए जा सकते हैं, यह कानून संपूर्ण उत्तरांचल (तत्कालीन नाम) में लागू होगा। देखा जाए तो उत्तराखंड के लोगों की जमीन बचाने के लिए बने कानून में सबसे बड़ा छेद विजय बहुगुणा कमेटी की सिफारिश पर हुआ। फिर भी संशोधित अधिनियम की धारा 154 (4) में उपधारा (1) जोड़कर प्रावधान किया गया कि ‘इसमें अन्य प्रतिबंधों के अधीन रहते हुए कोई भी व्यक्ति अपने परिवार की ओर से भले ही वह धारा 129 के अधीन राज्य में भूमि का खातेदार न हो, बिना किसी की अनुमिति के एक बार 500 वर्गमीटर भूमि खरीद सकता है। मगर फिर भी वह भविष्य में राज्य का भूमिधर नहीं माना जाएगा। वह केवल एक ही बार आवासीयप्रयोजन के लिए इतनी जमीन खरीद सकता था। वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव में भुवन चंद्र खंडूड़ी के नेतृत्व में सरकार बनी, जिसने जमीन खरीदने की सीमा 500 वर्ग मीटर से घटा कर 250 वर्ग मीटर तो कर दी मगर अधिनियम की धारा 2 नहीं हटाई जिससे नगरीय क्षेत्र में जमीनें खरीदने की खुली छूट थी। जबकि सिटी के इलाके की जमीन प्राइम लैंड मानी जाती है और उन्हीं की खरीद-फरोख्त भी होती है।

    उत्तराखंड में सन् 2017 में सत्ता बदली तो त्रिवेंद्र सिंह रावत की अगुवाई वालीनईसरकारनेऔद्योगिक विकास का रास्ता खोलने और ग्रामीण क्षेत्रों तक नागरिक सुविधाओं के विस्तार की बात कहते हुए प्रदेश के 13 में से 12 जिलों के 385 गांवों को नगर निकायों में शामिल कर 50,104 हेक्टेयर जमीन में खरीद-फरोख्त के लिए रास्ता खोल दिया। इस मुहिम के तहत गढ़वाल मंडल में देहरादून जिले में सर्वाधिक सर्वाधि 85 गांवों के 20221.294 हेक्टेयर ग्रामीण क्षेत्र को नगर निगम के अतिरिक्त हरबर्टपुर, विकास नगर, ऋषिकेश, डोईवाला शामिल किया गया है। पौड़ी गढ़वाल जिले के 80 गांवों के 4631.236 हेक्टेयर ग्रामीण क्षेत्र को श्रीनगर तथा कोटद्वार शहरी निकायों में शामिल किया गया। उत्तरकाशी जिले के 35 गांवों के 2067.411 हेक्टेयर ग्रामीण क्षेत्र को बड़कोट तथा बाराहाट में शामिल किया गया है। इसके अतिरिक्त चमोली जिले के 7 गांवों के 607.988 हेक्टेयर ग्रामीण क्षेत्र को औली, कर्णप्रयाग, नंदप्रयाग निकायों में शामिल किया गया है। नैनीताल जिले के 52 ग्रामों के 4576.753 हेक्टेयर ग्रामीण क्षेत्र को हल्द्वानी, भवाली, भीमताल नगर निकाय में शामिल किया गया है। बागेश्वर जिले के 20 गांवोंके 732.308 हेक्टेयर ग्रामीण क्षेत्र को बागेश्वर नगर पालिका में शामिल किया गया है। चंपावत जिले के 4 गांवों के 67.913 हेक्टेयर क्षेत्र को टनकपुर नगरपालिका क्षेत्र में शामिल किया गया। पिथौरागढ़ जिले के 11 गांवों के 772.492 हेक्टेयर क्षेत्र को पिथौरागढ़ और डीडीहाट नगर निकाय में शामिल किया गया है। जिन गांवों को बिना नागरिक सुविधाओं के नगर निकायों में शामिल किया गया उनमें ही जमीनों की सर्वाधिक खरीद-फरोख्त होती रही। अब उत्तराखंड अकेला हिमालयी राज्य हो गया है, जहां के मूल निवासियों की जमीनें कोई भी खरीद कर उन्हें उनकी ही जमीन पर मजदूरी करा रहा है। (ये लेखक के निजी विचार हैं)

     

     

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