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    Home»कवर स्टोरी»विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष : पिघलते ग्लेशियर… इस नुकसान को भरने में गुजर जाएंगी सदियां!
    कवर स्टोरी

    विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष : पिघलते ग्लेशियर… इस नुकसान को भरने में गुजर जाएंगी सदियां!

    वर्तमान जलवायु नीतियां दुनिया को तीन डिग्री सेल्सियस के करीब ले जा रही हैं। यह स्पष्ट है कि ऐसी दुनिया ग्लेशियरों के लिए 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा वाली दुनिया से कहीं अधिक बुरी है। कई लोगों के मन में अक्सर ये सवाल आता है कि क्या ग्लेशियर हमारे जीवनकाल या हमारे बच्चों के जीवनकाल में फिर से बनेंगे? एक नए शोध के निष्कर्षों से पता चलता है कि दुर्भाग्य से ऐसा नहीं  होने वाला है। यानी हमारी कई पीढ़ियां हिमालय को उसके मूल स्वरूप में नहीं देख पाएंगी।
    teerandajBy teerandajJune 4, 2025Updated:June 6, 2025No Comments
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    विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष : जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लेशियरों को जो नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई आसानी से नहीं होने वाली। बात उस परिस्थिति की हो रही है, जब माना जाए कि दुनिया की जलवायु फिर से सामान्य दशा में पहुंच गई हो। पृथ्वी का तापमान सामान्य हो चुका हो। एक हालिया शोध में बताया गया है कि कई पीढ़ियां हिमालय या दुनिया की अन्य पर्वतमालाओं को उसके मूल स्वरूप में नहीं देख पाएंगी। यह अनुमान इस आधार पर लगाया गया है- वर्ष 2150 तक पृथ्वी का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस से बढ़कर 3 डिग्री सेल्सियस को छू जाए। फिर स्थिर होकर वर्ष 2300 तक वापस 1.5 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाए। शोध में बताया गया है कि तापमान सामान्य होने के बाद ग्लेशियरों को अपने मूल स्वरूप मे आने में करीब 200 साल लगेंगे। यानी वर्ष 2300 तक जलवायु सामान्य दशा में पहुंचने के बाद वर्ष 2500 में ग्लेशियर अपने मूल स्वरूप में आ पाएंगे। जलवायु परिवर्तन की मार से हमारी कई पीढ़ियां ग्लेशियरों को मूल स्वरूप में नहीं देख पाएंगी। 475 साल बाद की परिस्थितियों का अनुमान ब्रिटेन के ब्रिस्टल विश्वविद्यालय और ऑस्ट्रिया के इंसब्रुक विश्वविद्यालय की अगुवाई में किए गए शोध में लगाया गया है। यह शोध पर्यावरण की दृष्टि से दुनिया भर के लिए महत्वपूर्ण है।

     यह शोध दुनिया की प्रतिष्ठित विज्ञान मैगजीन नेचर क्लाइमेट चेंज में मई 2025 में प्रकाशित हुआ है। इसमें बताया गया कि वर्तमान में दुनिया में जलवायु को लेकर जो नीतियां हैं, उससे वर्ष 2150 तक ग्लेशियरों का द्रव्यमान 16 फीसदी तक अधिक घट सकता है। पिछला हुआ पानी समुद्र में मिल जाएगा। उसका जलस्तर बढ़ जाएगा। दुनिया के कई तटीय शहरों का वजूद खत्म हो जाएगा। कई देशों के अस्तित्व भी मिट जाएंगे। वैसे भी दुनिया भर में पिघलते ग्लेशियरों पर वैज्ञानिक चिंता जता रहे हैं। लेकिन, इसको लेकर जो गंभीरता बरती जानी चाहिए, वह नहीं दिख रहा है। बड़े-बड़े देश अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ रहे हैं।

    यह भी पढ़ें – World Environment Day Special: पर्यावरण, गांधी और जल-जंगल-जमीन, जीवन का सवाल

    500 साल बाद का अनुमान असंगत वाडिया इंस्टीस्टूट के वरिष्ठ वैज्ञानिक रहे डा. डीपी डोभाल कहते हैं – ऐसे शोधों को कोई मतलब नहीं है। 2009 में एक शोध आया था, उसमें कहा गया कि 2035 तक हिमालय के अधिकतर ग्लेशियर खत्म हो जाएंगे। हकीकत क्या है? अब कोई नहीं कहता कि हिमालय के ग्लेशियर 2035 तक खत्म हो जाएंगे। पांच सौ साल बाद क्या होने वाला है, इसका अनुमान लगाना मुझे असंगत लगता है। प्रकृति खुद अपनी मरम्मत करती रहती है। लोगों की मुख्य चिंता पानी है। अगर ग्लेशियर पिघलते भी है तब भी पानी का विकल्प मौजूद होगा। सॉलिड न होकर लिक्विड होगा। वह कहते हैं, डराने वाले शोध खूब आते हैं। पूरे विश्व में इस बात पर कम चर्चा होती है कि इसे बचाया कैसे जाए? मानव गतिविधियां इतनी बढ़ गई हैं कि इन्हें रोक पाना असंभव है। इसलिए हमारे शोध का विषय ये होना चाहिए कि वर्तमान परिस्थितियों में पृथ्वी को कैसे बचाए? रही बात हिमालय की यह इतनी जल्दी खत्म होने वाला है। प्रकृति को समझना इतना आसान नहीं है। कोई भी वैज्ञानिक इसे पूरी तरह नहीं समझ पाया है।

    कैसे बनाया जाए संतुलन?

    डा. डोभाल कहते हैं, नेचर के साथ हम खेल नहीं सकते हैं। हमें नहीं पता होता है कि नेचर में क्या हो रहा है। आने वाले समय में वह कैसे रिएक्ट करेगा। मुझे लगता है कि डेवलपमेंट करते समय हम प्रकृति की अनदेखी कर रहे हैं। पहाड़ों पर किसी भी प्रोजेक्ट से पहले विस्तृत पर्यावरणीय अध्ययन करना चाहिए। सरकार को चाहिए कि आम लोगों में व्यापक जागरूकता अभियान चलाएं। ताकि, लोग सचेत हों।

     क्या है पृथ्वी का औसत तापमान

    पेरिस जलवायु सम्मेलन में 195 देशों ने तय किया था कि पृथ्वी का औसत तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस रखा जाए। 12 दिसंबर, 2015 को संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (COP21) हुआ था। यह समझौता 4 नवंबर, 2016 को लागू हुआ। दुर्भाग्य की बात यह है कि यह समझौता कभी पूरी तरह से लागू नहीं हो पाया। यूरोपीय संघ की कॉपरनिकस जलवायु परिवर्तन सेवा की रिपोर्ट इस बात की पुष्टि करती है। रिपोर्ट में बताया गया है कि 2024 ज्ञात मौसम इतिहास का पहला ऐसा साल था जब वैश्विक औसत तापमान वृद्धि पूर्व-औद्योगिक स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस के पार चली गई। ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, न्यू गिनी और प्रशांत महासागर में स्थित अन्य पड़ोसी द्वीप और अंटार्कटिका को छोड़कर सभी महाद्वीप 2024 में ज्ञात मौसम इतिहास के सबसे गर्म साल के गवाह बने। इससे पहले 2023 भी सबसे गर्म साल का दर्ज पा चुका है। यानी, तापमान में हर साल वृद्धि हो रही है।

    अनुमान से कहीं तेजी से पिघल रहे ग्लेशियर

    • इस सदी के अंत तक अगर धरती का औसत तापमान अगर 2.7° सेल्सियस और बढ़ा तो दुनिया में मौजूद ग्लेशियरों में सिर्फ 24% बर्फ़ ही बची रह जाएगी।
    • ग्लेशियरों की 76% बर्फ़ पिघल चुकी होगी। पेरिस समझौते में ये तय हुआ था कि दुनिया के तापमान को पूर्व औद्योगिक तापमान से 1.5° सेल्सियस से ज़्यादा नहीं बढ़ने देना है।
    • अगर दुनिया का औसत तापमान 1.5°सेल्सियस तक ही बढ़ा तब भी ग्लेशियरों की 46% बर्फ़ पिघल जाएगी, सिर्फ़ 54% बर्फ़ ही बची रहेगी।
    • अगर औसत तापमान बढ़ना बंद हो जाए और उतना ही रहे जितना आज है तो भी दुनिया के ग्लेशियरों की बर्फ 2020 के स्तर से 39% कम हो जाएगी।
    • दुनिया का औसत तापमान 2° सेल्सियस बढ़ा तो स्कैंडिनेवियन देशों यानी नॉर्वे, स्वीडन और डेनमार्क के ग्लेशियरों की सारी बर्फ़ पिघल जाएगी।
    • उत्तर अमेरिका की रॉकी पहाड़ियों, यूरोप के आल्प्स और आइसलैंड के ग्लेशियरों की करीब 90% बर्फ़ पिघल जाएगी।
    • औसत तापमान में 2° सेल्सियस की बढ़ोतरी का असर दक्षिण एशिया में हिंदूकुश हिमालय पर भी भारी पड़ेगा, 2020 के मुकाबले हिंदूकुश हिमालय के ग्लेशियरों में महज 25% बर्फ़ रह जाएगी, यानी 75% बर्फ़ पिघल जाएगी।
    • हिंदूकुश हिमालय से निकलने वाली नदियां जो गंगा, सिंधु और ब्रह्मपुत्र की घाटियों में बहती हैं वो करीब दो अरब आबादी के लिए अनाज और पानी की गारंटी हैं। औसत तापमान में बढ़त अगर 1.5 डिग्री सेल्सियस पर रुक गई तो भी हिंदूकुश हिमालय के ग्लेशियरों में 40 से 45% बर्फ ही बच पाएगी। स्रोतः साइंस मैगजीन
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