गर्भ संस्कार कह लीजिए या Womb Ceremony, इन दिनों इसका चलन जोरों पर हैं। विज्ञान भी मानता है कि किसी भी बच्चे के व्यक्तित्व का 80 फीसदी निर्माण गर्भ के भीतर ही हो जाता है। बाकी 20 फीसदी जन्म के बाद से पूरे जीवन तक होता रहता है। इसलिए हमारे ऋषि-मुनियों ने गर्भावस्था के दौरान तीन संस्कार के नियम बनाए थे। क्योंकि, बच्चे के जन्म के बाद उसका व्यक्तित्व बदलना मुश्किल हो जाता है। इन दिनों हिंदू धर्म के 16 प्रमुख संस्कारों में दूसरे पुंसवन संस्कार का चलन बढ़ा है। कई संस्थाएं सामूहिक रूप से इसे कराती हैं। हरिद्वार में शांतिकुंज में अब तक अनेक दंपति पुंसवन संस्कार करा चुके हैं। विज्ञान इसे मानता है या नहीं? इस पर बहस हो सकती है लेकिन हमारे ग्रंथों में इसे बेहद महत्वपूर्ण और पवित्र माना गया है।
संस्कारवान बच्चे की चाहत हर दौर में रही है। तमाम धार्मिक ग्रंथों में बच्चा संस्कारवान हो, इसके लिए उपाय भी बताए गए हैं। कुछ संस्थाएं इसे विज्ञान से जोड़कर लोगों को जागरूक कर रही हैं। इस पहल में डॉक्टर भी जुड़ रहे हैं। यही वजह है कि इन दिनों गर्भ संस्कार का चलन बढ़ गया है। गर्भ संस्कार का उल्लेख वैदिक काल के ग्रंथों में है। इस दिनों इसे संस्थागत तरीके से कराया जा रहा है। हर राज्य में संस्थाएं बन गई हैं। सोशल मीडिया पर हजारों की संख्या में चैनल हैं।


हरिद्वार स्थित गायत्री शांतिकुज की वरिष्ठ प्रतिनिधि उत्तर प्रदेश की पूर्व महानिदेशक चिकित्सा स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण डॉ. गायत्री शर्मा कहती हैं, जब बच्चे के व्यक्तित्व का 80 प्रतिशत निर्माण गर्भ के भीतर ही हो जाता है तो उसके जन्म के बाद उसमें परिवर्तन लाना मुश्किल हो जाता है। इसलिए गर्भ संस्कार जरूरी है। हालांकि, वह इस प्रक्रिया को मेडिकल पढ़ाई में शामिल करने की वकालत भी करती हैं। वह कहती हैं, इससे लोगों का विश्वास और गहरा हो जाएगा। देश को संस्कारी बच्चे मिलेंगे। जब तक संस्कार हैं, देश रहेगा। अच्छी बात यह है कि लोग चाहते भी हैं कि उनके यहां संस्कारी बच्चे हों। लेकिन, उनको जानकारी नहीं है। इसलिए हम लोग गर्भ उत्सव को आंदोलन का रूप दे रहे हैं। वह बताती हैं, गर्भावस्था के दौरान होने वाले तीन संस्कारों को मिलाकर यहां गर्भ उत्सव किया जाता है। इसे वूंब सेरेमनी भी कहते हैं, दूसरे धर्म के लोग भी इस उत्सव में शामिल हों इसलिए नाम बदला गया। मुस्लिम, कैथोलिक समेत अन्य धर्म की महिलाएं भी आती हैं।
शांतिकुंज से जुड़ीं ऋतु बताती हैं, 1972 में मथुरा में शांतिकुंज की स्थापना के समय से ही गुरुजी ने इस गर्भ संस्कार क्रिया को शुरू किया था। 2014 में इस पहल को विज्ञान से जोड़ा गया। वह बताती हैं, शांतिकुंज हरिद्वार से लेकर अंडमान निकोबार, दक्षिण भारत के तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल आदि राज्यों में भी यह संस्कार कराया जाता है। अगर सभी राज्यों के आंकड़ों को जोड़ लिया जाए तो यह संख्या हजारों में होती है। साथ ही हमारी तरफ से जो ट्रेनिंग दी जाती है, उसमें भी हजारों की संख्या में लोग जुड़ते हैं।
आपको याद आ रहा होगा, घर में जब कोई महिला गर्भधारण करती थी तो बड़े-बुजुर्ग उससे कोई न कोई धार्मिक ग्रंथ या कोई मंत्र जपने को कहते थे। आहार-विचार पर विशेष ध्यान देने को कहा जाता था। यह पुंसवन संस्कार का ही एक हिस्सा है। क्योंकि यह माना जाता है कि मां के शरीर से बच्चे का शरीर और मां के मन से बच्चे का मन बनता है। ग्रंथों में तो यह सिद्ध है। हालांकि, दुनिया के वैज्ञानिक इस मुद्दे पर एकमत नहीं हैं।
जूना अखाड़े के स्वामी अवधेशानंद गिरि महाराज कहते हैं, गर्भाधान संस्कार सबसे महत्वपूर्ण है। योग्य संतान पाने के लिए सभी संस्कारों का पालन करना आवश्यक है। दुर्भाग्य है कि पहला संस्कार हम भूलते जा रहे हैं। जबकि, शास्त्रों में इसका विस्तृत वर्णन है। इसके लिए विधि-विधान तक बनाए गए हैं। मुहुर्त भी देखना होता है। इसी तरह मलूक पीठाधीश्वर स्वामी राजेंद्र दास जी महाराज भी अपने प्रवचन में गर्भाधान, पुंसवन, सीमंतोनयन और जातकर्म संस्कार पर जोर देते हैं।
लेकिन, आज के दौरान नामकरण, उपनयन, विवाह और अंतिम संस्कार को ही लोग विधि विधान से करते हैं। बाकी के बारे में उन्हें या तो जानकारी नहीं होती या या करने में असमर्थ होते हैं। वर्तमान समय में स्त्री-पुरुष दोनों काम करते हैं। एकल परिवार का चलन बढ़ा है।
इस्कॉन के अमोघ लीला प्रभु भी बताते हैं कि आशीर्वाद की ताकत बहुत ज्यादा होती है। इसलिए पुंसवन संस्कार बेहद महत्वपूर्ण होता है। आप यूट्यूब् पर सर्च करेंगे तो इनसे संबंधित हजारों वीडियो मिल जाएंगे। रोचक बात यह है कि लाखों में इनके व्यूज हैं। यानी, लोग बच्चे संस्कारवान ही चाहते हैं। तुलसीदास का दोहा-जननी जने तो भक्तजन, कै दाता कै सूर। नहीं तो जननी बांझ रहै, व्यर्थ गवावहिं नूर। इसका मतलब हुआ, यदि कोई माता पुत्र को जन्म दे, तो उसे भक्त, दानी या शूरवीर (योद्धा) बनाना चाहिए। यदि वह ऐसा नहीं कर पाती है, तो उसे संतानहीन रहना ही बेहतर है, क्योंकि वह अपने नूर (तेज) को व्यर्थ ही खो रही है। यह दोहा बुजुर्गों से अक्सर सुनने को मिल जाता होगा। कथावाचक देवकीनंदन ठाकुर अपने प्रवचन में कहते हैं कि बच्चा संस्कारयुक्त हो, बलवान-बुद्धिमान हो यह सबकी चाहत होती है। लेकिन, इसके लिए जो कर्म करने चाहिए लोग वह नहीं करते हैं। इसका जिक्र यहां इसलिए जरूरी हो जाता है कि ताकि हमें पता चले की आज के दौर का चलन क्या है?

हिंदू धर्म के प्रमुख ग्रंथ भागवत गीता में भी कहा गया है, मां अपने बच्चे का भाग्य निर्माण गर्भ में ही करती है। भगवान श्रीकृष्ण और धनुर्धारी अर्जुन के बीच संवाद महिलाएं गर्भावस्था के दौरान सुनती हैं। इसमें अर्जुन की जिज्ञासा शांत करने के लिए भगवान कहते हैं, भावनाएं मानव होने का सौंदर्य है। लेकिन, जब यह विवेक, ज्ञान से दूर ले जाती हैं तो माया बन जाती है। मां जो भावनाएं रखती हैं वही उसके शिशु के भीतर उतरती है। अर्जुन पूछते हैं, जो शब्द हम बोलते हैं, क्या वह किसी आत्मा को प्रभावित करते हैं? इस पर भगवान मधुसूदन बताते हैं – हां अर्जुन, शब्द केवल ध्वनि नहीं होते। वह चित्त को भी प्रभावित करते हैं। मां जो वाक्य बोलती हैं वह शिशु की चेतना में उतरते हैं। इसलिए गर्भावस्था के दौरान मां को वह शब्द बोलने चाहिए जो शांति दे। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं, मौन में छिपा होता भाव और भाव ही असली संवाद। मां मौन से भी गर्भ में प्रेम भेज सकती है। इसी तरह महाभारत में अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु ने मां के गर्भ से ही चक्रव्यूह के छह द्वार को तोड़ना सीख लिया था। सातवें के समय अभिमन्यु की माता द्रोपदी सो गईं। इस वजह से वह कौरवों द्वारा रचे चक्रव्यूह के सातवें द्वार को नहीं तोड़ पाए। यानी, हमारे ग्रंथों के मुताबिक भ्रूण मां के गर्भ में सीखने की शक्ति रखता है। यानी, हमारे धर्म ग्रंथ इस बात की पुष्टि करते हैं कि बच्चे गर्भ के दौरान सीखते हैं।

गायत्री तीर्थ शांतिकुंज में गर्भोत्सव
हरिद्वार स्थित गायत्री तीर्थ शांतिकुज में गर्भ उत्सव संस्कार आंदोलन के रूप में चलाया जा रहा है। ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान शांतिकुंज हरिद्वार के निदेशक एवं देव संस्कृति विश्व विद्यालय के कुलाधिपति एवं अंतरराष्ट्रीय गायत्री परिवार के प्रमुख डा. प्रणव पंडया (एमडी मेडिसिन) के मार्गदर्शन में यह अभियान वृहद रूप ले चुका है। दावा है कि अब तक लाखों लोग यहां आकर पुंसवन संस्कार करा चुके हैं। हालांकि, पुंसवन संस्कार को यहां गर्भोत्सव संस्कार कहा जाता है। डा. प्रणव पंडया कहते हैं, 140 करोड़ आबादी वाले हमारे राष्ट्र की लगभग 70% जनसंख्या युवाओं की है। किसी राष्ट्र की सच्ची सम्पत्ति वहां के आदर्श चरित्र वाले महान व्यक्ति ही होते हैं। आज युवाओं के गिरते नैतिक एवं मानवीय मूल्यों के कारण उनका चिंतन चरित्र एवं व्यवहार हमारे लिए बड़ी चुनौती हो गई है। क्योंकि उनके शारीरिक विकास एवं स्वास्थ पर ही ध्यान दिया जाता है। उनके मानसिक, भावनात्मक व नैतिक विकास पर ध्यान न दिए जाने के कारण भावी पीढी दिशाविहीन, तरह-तरह के अपराधों में लिप्त, भावनात्मक एवं नैतिक मूल्यों से वंचित होती जा रही है। इसलिए भावी पीढी के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, भावनात्मक, नैतिक समाजिक व अध्यात्मिक विकास के लिए गर्भोत्सव संस्कार एक आंदोलन के रूप में चलाया जा रहा है। हमारे ऋषियों ने बताया है कि मनुष्य के व्यक्तित्व एवं चरित्र यानी उसका चिंतन, चरित्र व व्यवहार अथवा गुण, कर्म एवं स्वभाव की नींव मां के गर्भ से ही, जिस दिन बच्चा गर्भ में आता है उसी दिन से प्रारंभ हो जाती है। इसकी पुष्टि आज मेडिकल साइंस एवं अन्य शोध पत्र भी कर रहें है। गर्भोत्सव संस्कार, योग व्यायाम, ध्यान एवं प्राणायाम की भांति वैज्ञानिक अध्यात्मवाद का एक ज्वलंत उदाहरण है। देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी इस मनोवैज्ञानिक एवं अध्यात्मिक उपचार का लाभ गर्भवती माताओं द्वारा भावी पीढ़ी को मिल सके इसलिए गर्भोत्सव संस्कार को विदेशों में भी चलाया जा रहा है। शांतिकुंज में चिकित्सकों एवं स्त्री रोग विशेषज्ञों, स्वास्थकर्मियों एवं आंगनबाड़ी कार्यकत्रियों को भी इसका प्रशिक्षण दिया जा रहा है।


डॉ. प्रणव पंडया कहते हैं, संस्कार वंशानुगत एवं अवचेतन मन पर जमे कुसंस्कारों को स्वच्छ कर अंतर्मन को सुसंस्कारों से प्रकाशित करने का कार्य करते हैं। संस्कारों का प्रभाव चेतना के सूक्ष्म स्तर अचेतन मस्तिष्क पर पड़ता है। यह अद्भुत आश्चर्य लेकिन वैज्ञानिक सत्य है कि बच्चा गर्भ में सुनता है। खुशी और दुख की अनुभूति भी करता है। रोता भी है। तनावग्रस्त रहता है। गुस्सा भी करता है। वह याद भी करता है। सीखता तथा सूचनाएं एकत्रित भी करता है। मां के शरीर से बच्चे का शरीर और मां के मन से बच्चे का मन बनता है। मां के भावनात्मक स्तर से गर्भ में ही बच्चे का व्यक्तित्व की नीव लगभग 80% बन जाता है। तनावग्रस्त, दुखी, क्रोधी नकारात्मक सोच एवं कुपोषित मां का बच्चा चिड़चिड़ा, उदास, नासमझ, भावनात्मक एवं व्यावहारिक विकारों वाला हो सकता है। संतुष्ट, स्वास्थ, प्रसन्न, सकारात्मक सोच, तनाव रहित वातावरण में रहने वाली एवं संतुलित सात्विक संस्कारित आहार खाने वाली मां का बच्चा प्रसन्नचित्त, तनाव मुक्त व्यव्हार कुशल, शांत, सही निर्णय लेने वाला समझदार और प्रत्येक क्षेत्र मे सफल हो सकता है। मां के आहार की कमी के कारण, कुपोषित बच्चा, भविष्य में अनेको बीमारियों का शिकार होता है। जैसे दिल की बीमारी, मधुमेह, कैंसर, उच्च रक्तचाप, अधिक कोलेस्ट्राल, मानसिक एवं व्यव्हार की समस्याएं। उच्च रक्त चाप व कैंसर की जड़ गर्भावस्था में ही पड़ जाती है। शांतिकुंज के अनूज अग्रवाल बताते हैं कि लोग चाहे जिस धर्म के हों, बच्चा सबको संस्कारी चाहिए। देश के लिए भी यह हितकर है। इसलिए हमलोगों ने पुंसवन नाम को बदलकर गर्भोत्सव संस्कार कर दिए। ताकि, ईसाई, मुसलमान, पारसी या कोई को धर्म का आदमी यहां आने से न हिचकिचाए।
गर्भावस्था में क्या करे मां….
नियमित एवं स्वस्थ दिनचर्या का पालन। नित्य, नियमित योगासन, जप, ध्यान एवं प्राणायाम करना। नित्य, नियमित अपने धार्मिक पुस्तकों का पाठ। शौर्य, साहस, सकारात्मक सोच एवं मानवीय मूल्यों को विकसित करने वाले साहित्य, सफल व्यक्तियों का चरित्र को पढ़ना। चार घंटे अच्छे सुखदायी, गूंजने वाले संगीत सुनना एवं गर्भस्थ शिशु से सकारात्मक बातें करना। प्रसन्न, स्वस्थ एवं सकारात्मक वातावरण बनाना। अपन रुचि के अनुसार खेल, रचनात्मक गतिविधियों में शामिल होना।