धराली से थराली, उत्तराखंड के कई हिस्सों या कह लीजिए पूरे हिमालयी क्षेत्र से हर दिन दुखद खबरें आ रही हैं, जो साफ बता रही हैं कि अब बादल फटने और बाढ़ आने जैसी घटनाएं सिर्फ पारंपरिक संवेदनशील क्षेत्रों तक सीमित नहीं रह गई हैं। बदलते मौसम और जलवायु ने खतरे वाले नए इलाके बना दिए हैं। इस विनाश के पीछे मानवीय हस्तक्षेप के साथ-साथ यहां की पहाड़ी बनावट और जल-प्रवाह से जुड़ी परिस्थितियां भी बड़ी वजह हैं। 5 अगस्त को धराली गांव में जो हुआ, वह सिर्फ प्राकृतिक आपदा नहीं थी, बल्कि विज्ञान, पर्यावरण और इंसानी लापरवाही का मिला-जुला असर था। उत्तराखंड में भारी वर्षा से हुए नुकसान के बाद राज्य सरकार ने सभी विभागों से क्षति का ब्योरा मांगा है। उत्तरकाशी, पौड़ी, टिहरी, चमोली जिले की हाल की घटनाओं ने प्रदेश को बहुत नुकसान पहुंचाया है। अनुमान है कि आपदा में 2500 करोड़ से अधिक मूल्य की संपत्तियों का नुकसान हुआ है और अनहोनी का खतरा अभी बरकरार है।
उत्तराखंड में इस साल मानसूनी बरसात ने अपना कहर बरपाया, जिसके कारण उत्तरकाशी का एक छोटा लेकिन बेहद खूबसूरत कस्बा धराली पूरी तरह मलबे में समा गया। ऐसे में पर्यावरण से जुड़े लोग इसको लेकर तरह-तरह की चर्चाएं कर रहे हैं। जिसमें वे पेड़ों के कटान से लेकर पर्यटन के नाम पर पहाड़ों में बढ़ रही भीड़ को भी एक बड़ा कारक मान रहे हैं। पर्यावरण को नजरअंदाज करना इन घटनाओं की प्रमुख वजह बताई जा रही है। उत्तराखंड में बीते 20 वर्षों में तकरीबन 1.8 लाख हेक्टेयर जंगलों को काटा गया है। जिसका असर बायोडायवर्सिटी, स्थानीय मिट्टी की पकड़ से लेकर जल संरक्षण तक पर पड़ा है। ईको सिस्टम पूरी तरह गड़बड़ा गया है। गौरतलब है कि वनों के कटान से पहाड़ों से निकलने वाली जलधाराएं भी विलुप्ति की कगार पर जा चुकी हैं। इसके अलावा, जंगलों के बीच रह रहे वन्यजीव भी अब आबादी वाले इलाकों की ओर रुख कर रहे हैं।
उत्तराखंड के चमोली जिले के थराली स्थित ऑटोमैटिक वेदर स्टेशन में 24 घंटे में 147 मिलीमीटर बारिश रिकॉर्ड हुई। यह बहुत भारी बारिश के श्रेणी में आता है। गदेरे में पानी के साथ आए मलबे में दबने से एक युवती की मौत हो गई। स्थानीय निवासियों ने बताया कि भारी बारिश की वजह से कई रातें जागते हुए काटी गईं। 23-24 अगस्त की रात करीब एक बजे थराली के टुनरी गदेरे में पानी बढ़ने के कारण तहसील परिसर, चेपड़ो गांव का बाजार, कोटदीप बाजार और कुछ घरों में 1 से 2 फीट मलबा घुस गया और कुछ वाहन भी मलबे में दब गए। ग्राम संगवाड़ा में एक मकान में मलबा आने के कारण एक युवती की मलबे में दबने से मौत हो गई। दर्जनों लोग घायल हो गए। वहीं, 21 अगस्त को बड़कोट तहसील के स्यानाचट्टी में गदेरे में मलबा आने से बनी अस्थायी झील का पानी निकालने के लिए प्रशासन को काफी मशक्कत करनी पड़ी। हालात यह थे कि पोकलैंड मशीनें काम नहीं कर पा रही थीं। इसके बाद झील को पंक्चर करने के लिए कंट्रोल्ड ब्लास्ट किया गया और तब झील से पानी निकलना शुरू हुआ।
हिमालयी क्षेत्रों में तापमान बढ़ने और अनियमित बारिश के कारण ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। इससे नई झीलें बन रही हैं और उनके टूटने से बाढ़ का खतरा बढ़ रहा है। साल 2025 तक भारत में ऐसे 300 से ज्यादा स्थान चिह्नित किए गए हैं, जहां हिमनद झील के फटने की आशंका है। इसके अलावा सड़कों का चौड़ीकरण, मशीनों से कटाई, सहारा देने वाली दीवारों (रिटेनिंग वाल) की कमी और नदियों में मलबा डालने जैसी इंसानी गतिविधियां भी प्राकृतिक आपदाओं के खतरे बढ़ा रही हैं। सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के बावजूद निर्माण कार्यों पर रोक नहीं लग पाई है। इसी वजह से यह क्षेत्र लगातार जलवायु जोखिम का हॉटस्पॉट बन गया है।
उत्तराखंड का पड़ोसी राज्य हिमाचल भी प्रकृति की भीषण मार झेल रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने हाल में ही कहा कि अगर यही हालात रहे तो हिमाचल प्रदेश मानचित्र से गायब हो जाएगा। पड़ोसी राज्य की जो स्थितियां हैं, कमोबेश हमारे यहां भी है। अदालत ने यह भी कहा था कि हर आपदा के लिए सिर्फ प्रकृति को दोष देना गलत है। केदारनाथ त्रासदी के बाद भी हिमालय की सुरक्षा के लिए जरूरी कदम नहीं उठाए गए। सरकारें विज्ञान आधारित नीतियों और भूगर्भ विशेषज्ञों की चेतावनियों को नजरअंदाज करती रही हैं। जिससे भविष्य में भी ऐसी आपदाएं दोहराई जा सकती हैं।
सितम ढाएगा सितंबर! लैंड स्लाइड और बाढ़ का खतरा
देश में सितंबर में सामान्य से अधिक बारिश होने का अनुमान है। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) के मुताबिक, सितंबर 2025 के लिए मासिक औसत बारिश 167.9 मिलीमीटर के दीर्घकालिक औसत से 109 प्रतिशत से अधिक होने का अनुमान है। आईएमडी के महानिदेशक मृत्युंजय महापात्र ने चेतावनी दी कि भारी बारिश से सितंबर में उत्तराखंड में भूस्खलन और अचानक बाढ़ आ सकती है। दक्षिणी हरियाणा, दिल्ली और उत्तरी राजस्थान में सामान्य जनजीवन बाधित हो सकता है। उन्होंने कहा, ‘उत्तराखंड से कई नदियां निकलती हैं। इसलिए, भारी बारिश का मतलब है कि कई नदियां उफान पर होंगी और इसका असर निचले इलाकों के शहरों और कस्बों पर पड़ेगा। इसलिए, हमें इसे ध्यान में रखना चाहिए।
8 साल में 3,534 लोगों ने गंवाई जान
मानसून हर साल उत्तराखंड के लिए बर्बादी लेकर आता है। बीते दस सालों के आंकड़ों पर नजर डालें तो उत्तराखंड में करीब 18,464 प्राकृतिक आपदाएं आई हैं। हर मानसून का सीजन कोई न कोई नया जख्म देकर जाता है। इस साल 2025 में भी उत्तराखंड को धराली आपदा के रूप में कभी न भूल पाने वाला जख्म मिला है। इस आपदा में 66 लोग लापता हैं, जिनकी खोजबीन में सर्च ऑपरेशन चल रहा है। लेकिन 50 फीट मलबे के नीचे दबे लोगों को कुछ पता नहीं चल पा रहा है। साल 2015 से 2024 तक आई प्राकृतिक आपदाओं पर गौर करें तो इन 10 सालों में 18,464 प्राकृतिक घटनाएं हुई हैं। इनके चलते हजारों लोगों की मौत हो चुकी है। इन सभी घटनाओं में से सबसे अधिक 12,758 तेज बारिश और बाढ़ की घटनाएं हुई हैं। उत्तराखंड आपदा प्रबंधन विभाग के आंकड़ों के मुताबिक पिछले 10 सालों में करीब 18,464 प्राकृतिक घटनाओं के चलते 3,667 पक्के और कच्चे मकान जमींदोज हुए। इसके अलावा 9,556 पक्के मकान और 5,390 कच्चे मकान आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त हुए।
सबसे मुश्किल भरा रहा 2018
साल 2015 से 2024 के बीच साल 2018 में सबसे अधिक घटनाएं हुई थी। साल 2018 में 5,056 घटनाएं दर्ज हैं। जिसमें 720 लोगों की मौत और 1,207 लोग घायल हो गए थे। साल 2025 में अगस्त के पहले हफ्ते तक करीब 700 प्राकृतिक घटनाएं हुई हैं। जिसके चलते 209 लोगों की मौत और 491 लोग घायल हो चुके हैं। यह आंकड़ा और बढ़ सकता है। क्योंकि अगस्त माह में धराली के अलावा थराली, पौड़ी समेत कई स्थानों पर आपदाएं हुई हैं। इसमें जानमाल का भी नुकसान हुआ है।
अर्ली वार्निंग सिस्टम की तैयारी!
भूस्खलन की दृष्टि से उत्तरकाशी, चमोली, रुद्रप्रयाग और टिहरी जिला अधिक संवेदनशील है। इन जिलों में अर्ली वार्निंग सिस्टम लगाने की योजना है। सचिव आपदा प्रबंधन एवं पुनर्वास विनोद कुमार सुमन के मुताबिक, जीएसआई अर्ली वार्निंग सिस्टम को विकसित करने पर काम कर रहा है। इसकी मदद से अधिक बेहतर और त्वरित तरीके से बचाव और सुरक्षात्मक कार्य हो सकेंगे।