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    Home»मेरे हिस्से के किस्से»नाम हो, बदनाम हो… मगर गुमनाम न हो : अनिल बिष्ट
    मेरे हिस्से के किस्से

    नाम हो, बदनाम हो… मगर गुमनाम न हो : अनिल बिष्ट

    कैसेट्स की दुनिया से यू-ट्यूब तक उत्तराखंडी लोक गीत-संगीत ने एक लंबा समय तय किया है। एक दौर से दूसरे दौर तक लोकगीतों के सफर के साक्षी रहे हैं लोकगायक, निर्देशक अनिल बिष्ट। भातखंडे हिंदुस्तानी संगीत महाविद्यालय पौड़ी में प्रधानाचार्य के पद पर कार्यरत अनिल बिष्ट को उत्तराखंडी लोकगीतों और लोकनृत्यों की मूल शैली को सजोने के लिए जाना जाता है। उत्तराखंड में वीडियो एल्बम के शुरुआती दौर के तकरीबन सभी गीतों का निर्देशन अनिल बिष्ट ने किया। उन्हें लोकगीतों में नए-नए प्रयोग से अलग पहचान मिली। तीरंदाज डॉट कॉम-अतुल्य उत्तराखंड ने उनकी संगीत यात्रा पर विस्तार से बात की। अनिल बिष्ट की जुबानी, उनके हिस्से के कुछ किस्से...
    Arjun Singh RawatBy Arjun Singh RawatNovember 20, 2024Updated:November 20, 2024No Comments
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    लोग मुझे अनिल बिष्ट के नाम से जानते हैं, मगर मेरा असली नाम यानी सरकारी दस्तावेजों में दर्ज नाम… अनिरुद्ध सिंह विष्ट है। पौड़ी गढ़वाल का रहने वाला हूं। मैं इस समय भातखंडे हिंदुस्तानी संगीत महाविद्यालय पौड़ी में प्रधानाचार्य हूं। मेरठ में संगीत से विशारद किया है। बचपन से ही में टेक्नीकल माइंड था। घर पर रेडियो, टीवी, टेप रिकॉर्डर खराब होता तो मैं ही बनाता था। मैंने इलेक्ट्रिक में डिप्लोमा किया है। मेरठ में अपट्रान कंपनी में काम भी किया था। सुबह से शाम तक नौकरी करता।

     

    शाम को साहनी कोचिंग में संगीत सीखता। कला की दुनिया में जब कदम रखा, तब मैं राजकीय इंटर कॉलेन कंडारा में आठवीं कक्षा में पढ़ता था। वहां पर रामलीला होती थी। रामलीला में जब दो सीन के बीच में गैप होता था तब मैं लड़की के रोल में आकर कॉमेडी करता था। यह डॉसिंग कॉमेडी थी। कभी-कभार स्टेज पर गाना भी गा लेता था। मुझे याद है, स्कूल की बाल सभा में मैंने स्टेज पर अपना पहला गाना स्वर्गीय गोपाल गोस्वामी जी का गाया था। यह था, ‘हिमालय का ऊंचा डांडा प्यारो मेरे गाँव, रंगीलो गढ़देश मेरो छबीलो कुमाऊं।’ जब मैंने यह गाना गाया तो मेरे साथियों ने काफी तारीफ की। तब से ही मुझमें गाना गाने की ललक पैदा हुई।

    मैंने शुरुआती ट्रेनिंग मेरठ में ली। मेरे गुरुजी प्रेम कुमार साहनी ने मुझे संगीत की दीक्षा दी। फिर मैंने नेगी जी के गाने सुनने शुरू किए। उस समय उनका एल्वम आया था, उसे मैंने खूब सुना। उसी के साथ मैं भी गाता था। समझिए यही मेरा रियाज था। मेरठ से ही गायकी की दुनिया में पदार्पण किया। इसके बाद मैं गढ़वाल वापस लौट आया। तब तक मुझे काफी कुछ आ गया था। नरेंद्र सिंह नेगी जी से भी कई बार मिल चुका था। उनसे कई टिप्स लिए। मेरा पहला कैसेट सोनोटोन कंपनी से 1987 में आया था। जिसका नाम था ‘का है जाणि बांदा’, लेकिन वह चला नहीं। मुझे लगता है कि वह मेरा उतावलापन था। मुझे लगा कि कुछ तो कमी है।

    मैं नेगी जी के पास गया, उन्होंने मुझे सुना और कहा-थोड़ा और तराशों। उतावलापन बिल्कुल भी न करो। अगर तुम खुद संतुष्ट नहीं हो तो पब्लिक को संतुष्ट नहीं कर सकते। पहला कैसेट फ्लॉप होने के बाद जब कुछ नहीं सूझ्झा तो पौड़ी में अर्किंस्ट्रा खोल लिया। वो भी गढ़वाली। हमारे ‘सिगमा जेड ऑर्केस्ट्रा’ को शादियों, पार्टियों, बर्थडे के ऑर्डल मिलने लगे। लोगों की फरमाइश पर गाने गाए। लोग कहते ये गाना सुनाओ। शुरू में यह संशय था कि हम हिंदी की तरफ जाएं या गढ़‌वाली की तरफ। हम मिक्स करके गाना गाते। श्रीनगर, पौड़ी और आसपास के इलाकों में हम प्रोग्राम करते थे। इस दौरान लोग ज्यादातर लोकगीत सुनना पसंद करते थे। तब मुझे समझ में आया कि पब्लिक का टेस्ट क्या है। सात- आठ साल का वक्त बीत चुका था। इस बीच मैंने एक कैसेट और निकाला लेकिन वह भी चला नहीं।

    अनिल बिष्ट

    1997 में नीलम कैसेट से ‘पाबो बाजार’ आया। करीष 1200 कैसेट्स पहली बार निकाले गए। जब इन कैसेट्स को श्रीनगर पहुंचाया गया तो दुकानदार कहने लगे, भाई… पाबो लेकर जाओ, यहां ये नहीं बिकेगा। मैंने कहा, भाई एक बार सुन तो लो… नहीं बिकेगा तो वापस कर देना। भगवान की कृपा रही कि यह गाना खूब चला।आज भी यह सुना जा रहा है। इसके बाद तो स्थानीय बाजारों पर आधारित गीतों की लाइन लग गई। कई लोकगीत हिट होने के बाद में उत्तराखंड के पारंपरिक वाद्य यंत्रों की धुन पर तैयार होने वाले गीतों की एल्बम ‘मैती’ लेकर आया। कैसेट्स वालों ने कहा कि समझ लीजिए, आपका बहुत नाम है। अगर नहींम चला तो नाम नीचे चला जाएगा। मैंने कहा, कोई बात नहीं है। तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा… लोक ने उठाया है, वह लोक में चला जाएगा तो क्या होगा। ‘मैती’ इतना हिट हुआ कि मुझे इसके पांच वॉल्यूम निकालने पड़े। लोगों ने इसे काफी पसंद किया।

    यह भी पढ़ें  : इस बार क्यों कम हो गए आठ लाख श्रद्धालु

    यू-ट्यूब की एक अच्छी बात यह रही कि इससे सभी को मंच मिला। पहले कैसेट्स बनाने के लिए लोगों को जमीन-मकान, गहने तक बेचने पड़ जाते थे। यू-ट्यूब ने गरीब से गरीब कलाकारों को मौका दिया। इससे गीतों की भरमार हो गई। यानी, गानों की उपलब्धता खूब है। हालांकि गुणवत्ता को लेकर सवाल उठाए जा सकते हैं। आज के दौर में सबके हाथ में मोबाइल है। हर कोई कैमरामैन, डायरेक्टर, एक्टर और गायक है। मेरी लोगों से यही अपील है कि अपनी संस्कृति को बचाए रखें। जैसे-कहीं भांगड़ा बनता है तो लोग जान जाते हैं कि यह पंजाब का है। वैसे ही, जब कहीं डोल बजे तो लोग कहे कि यह उत्तराखंड की धुन है। साथ ही युवाओं से यह कहना चाहता हूं कि आप अन्य भाषाएं सीखें मगर अपनी मातृभाषा गढ़वाली न छोड़ें। इसे बोलने में हिचके नहीं।


    उत्तराखंड की पहली वेब सीरीज ‘मनसा’
    सीडी के दौर जाने के बाद हम लोगों के सामने संकट था कि हम क्या करे। फिर हम लोगों ने वेब सीरीज बनाने की सोची। नेगी जी के गानों को लेकर बनाई गई इस वेब सीरीज का व्यू मिलियन तक गया। लोग हमसे पूछते कि इसका पार्ट-2 कब बना रहे हैं। मैंने मनसा पार्ट-2 से पहले अपनी दूसरी वेब सीरीज ‘संजोग’ रिलीज की। वह भी खूब चली। इस दौरान कई लोग मुझसे कहने लगे कि आप बड़े पर्दे को फिल्म बनाओ। लेकिन, हमारा उद्देश्य अलग था। हम यू- ट्यूब के माध्यम से सभी जगह पहुंच रहे थे। हमारा कंटेट हर घर तक पहुंच रहा था। यह काफी आसान था। बड़े पर्दे की पहुंच सीमित होती है। इसके लिए संसाधन भी खूब चाहिए।

    मैं कलाकारों से एक बात बोलना चाहूंगा- यू-ट्यूब पर भले ही आपके मिलियन व्यूज है, इसका मतलब यह नहीं कि आप बड़े अच्छे कलाकार हो गए। पब्लिका में आपकी पकड़ कितनी है यह बड़ी बात होती है। व्यूज का क्या है, कभी लाख में तो कभी खाक में। करिअर में उतार चढ़ाव आते हैं। सबसे बड़ी बात धैर्य है। एक बात और बोलना चाहूंगा… मेरा मानना है कि नाम हो, बदनाम हो लेकिन गुमनाम न हो। नाम है तो ठीक है, बदनाम हो तो भी ठीक है आगे सुधार हो जाएगा। यानी बेस्ट आना बाकी है। लेकिन, गुमनाम हो गए तो कुछ नहीं बचता है। इसलिए कलाकारों को लाइम लाइट में बने रहना चाहिए।

    जब वीडियो का दौर शुरू हुआ था उस समय जो कलाकार थे। वह कहीं से ट्रेनिंग लेकर नहीं आए थे। सब काम करते हुए ही सीखे। द्वारिका नौटियाल, मोहिनी शतबोला, तारा गुसाई, भावना भाकुनी, संजय सिलोड़ी, रचिता कुकरेती, संजीता कुकरेती कई नाम हैं, जो बाद में बहुत मशहूर हुए। इनको सेट पर बताता था कि मुझे क्या चाहिए। मैं उन्हें एक्ट करके दिखाता था। चाहे रोने वाला गाना हो या डॉसिंग, कॉमेडी, मैं सब करके बताता था। कई लोग बोलते थे कि बार जब तुम इतना अच्छा कर लेते हो तो एक्टर क्यूं नहीं बन जाते। मै कहता था, यह मेरा काम नहीं। मैं कैमरे के पीछे ही अच्छा हूं। अगर मैं खुद ही एक्टिंग करने लग जाऊंगा तो नए कलाकारों को क्या सिखाऊंगा। मैं अपने काम में ही व्यस्त हो जाऊंगा।

    कुछ ऐसे बना ‘हे काछी’ गीत
    एक बार देहरादून में तिब्बती मार्केट घूम रहा था। तिब्बती लोगों के चेहरे थोड़े-बहुत नेपालियों से मिलते हैं। मेरे मन में ख्याल आया, ये लोग जो इतनी बड़ी संख्या में यहां बसे हैं। कब से आए हैं, कहां से आए हैं? इनके पीछे का इतिहास क्या है। मुझे बताया गया कि यहां पर गोर्खाली भी हैं। उनको यहां चाऊमीन मोमोस की दुकानें थीं। उस समम हमारी टीम में पूरन थापा रहता था। वह को-ऑर्डिनेटर का काम करता था। मैंने उससे पूछा, कुछ नेपाली शब्दों के अर्थ बता सकते हो। इस तरह काफी प्रैक्टिस के बाद तैयार हुआ हे काछी गीत।

    अनिल बिष्ट उत्तराखंड 360 मेरे हिस्से के किस्से
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    पत्रकारिता का लंबा करियर। एजेंसी,टीवी, अखबार, मैग्जीन, रेडियो और डिजिटल मीडिया का अनुभव। राष्ट्रीय मीडिया में 15 साल काम करने के बाद पहाड़ों का रुख। पहाड़ के मुद्दों पर खुलकर बोलने का दम। जमीन पर काम करने का जज़्बा और जुनून आज भी वैसा ही, जैसा पहले दिन था।

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