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    Home»अतुल्य उत्तराखंड»परसोली का दरबारगढ़…जहां है तीलू रौतेली की जादुई तलवार!
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    परसोली का दरबारगढ़…जहां है तीलू रौतेली की जादुई तलवार!

    क्या आप विश्वास कर सकते हैं कि 16वीं-17वीं सदी की वीरांगना तीलू रौतेली की तलवार आज भी मौजूद होगी? और तो और... उस तलवार पर लेशमात्र भी जंग नहीं लगा है। पौड़ी गढ़वाल के नैनीडांडा विकास खंड के परसोली या पड़सोली गांव के दरबारगढ़ में रखी हुई वीरांगना तीलू रौतेली की वह तलवार जिसने न जाने कितने दुश्मनों की गर्दनें नाप दी थीं, आज भी 'जादुई' कहलाती है। यह तलवार दुधारी है जिसकी मूठ पर चांदी मढ़ी है। ...यह गोर्ला थोकदारों के परसोली स्थित दरबारगढ़ के पूजा कक्ष में आज भी विराजमान है, जिसकी नित नियम से पूजा होती है।
    teerandajBy teerandajApril 4, 2025Updated:April 5, 2025No Comments
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    अतुल्य उत्तराखंड के लिए मनोज इष्टवाल

    देवभूमि का इतिहास न जाने कितनी गौरवगाथाओं को अपने में समेटे है। यहां की मातृशक्ति के धैर्य, साहस और पराक्रम के किस्से पहाड़ के हर हिस्से में मिलते हैं। एक ऐसी ही वीरांगना थी तीलू रौतेली, जिनके साहस और पराक्रम की कहानियां सिर्फ उत्तराखंड में ही सिमटकर रह गईं हैं। पिता, भाई और मंगेतर की शहादत का बदला लेने के लिए 15 साल की तीलू रौतेली ने जिस पराक्रम और शौर्य का परिचय दिया था, वैसी मिसाल दूसरी नहीं मिलती।

    परसोली क्वाठा… यानी वीरांगना तीलू रौतेली के भाई पत्वा का दरबारगढ़! गोर्खाली काल में भी गोर्ला रावतों के हस्तगत था लेकिन इनकी गढ़ी और थोकदारी पर गोर्खा काजी चामू भंडारी और चौतरा बमशाह का नियंत्रण था, जो इनसे क्षेत्रीय जनता की कर वसूली करवाते थे। वे इन्हें भी कर देने के लिए विवश करते थे जिसमें दरबारगढ़ का कर अलग से देना पड़ता था लेकिन जैसे ही ब्रिटिश शासकों ने समझौते के तहत इसे हस्तगत कर उलमतु गोर्ला और थौबा गोर्ला के पिता पढसू गोर्ला को इसकी जागीर सौंपी, इन्हीं के नाम पर दरबारगढ़ का नाम बदलकर परसोली क्वाठा (किला) कर दिया! साथ ही इसकी दुबारा से मरम्मत करवाकर इसका आकार चौकोर कर दुपुरा (द्वीपुरा) शैली में परवर्तित कर दिया! कहते हैं यहां भी कत्यूरियों का दोष लगा तो क्वाठा के अंदर नरसिंह देवता की मूर्ति स्थापित कर उसकी कुल देवता के रूप में पूजा शुरू कर दी!

    वर्तमान में राजस्थान के जोधपुर शहर में रह रहे परसोली क्वाठा के गोर्ला रावत जगमोहन सिंह तलवार के साथ अपनी  1991 की फोटो साझा करते हुए बताया था कि इस तलवार की मूठ से पानी की बूंदें धार की तरह बढ़ती हुई जब नोक तक पहुंचती हैं तब उस पानी को किसी बर्तन में इकट्ठा कर दूर-दूर का जनमानस अपने साथ ले जाता है। इस सत्यता को प्रमाणिकता देने के लिए हीरा सिंह गोर्ला और राकेश रावत ने भी हामी भरी। उन्होंने कहा कि वर्तमान में भी काशीपुर, उधमसिंह नगर, रामनगर ही क्या, पहाड़ों से भी लोग आकर इसका पानी ले जाते हैं। यह पानी तांत्रिक क्रियाओं में प्रयोग में लाया जाता है। ऐसी किंवदंती है कि जिस महिला के बच्चे नहीं होते इस पानी को पी लेने मात्र से उसका गर्भ ठहर जाता है

    गुजडू पट्टी में परसोली के सयाणा/थोकदार, जिन्हें गोरखा शासनकाल में सयाणा नियुक्त किया गया, उनमें हिमतु रौत के पुत्र उदमतु रौत और थौबा रौत हुए जिनके छह परिवार दरबारगढ़ में हुए और यही बढ़कर लगभग 60 परिवार बन गए। यह वही स्थान है, जहां वीरांगना तीलू रौतेली ने राजा बाजबहादुर चंद के सेनापति कुंवर शक्ति गुसाईं का सिर कलम कर अपनी यश-कीर्ति बढ़ाई और अंतिम युद्ध में राजा बाजबहादुर चंद के पुत्र राजा उद्योत चंद के वीरभड़ सेनापति मैसी साहू को मौत के घाट उतारकर उद्योत चंद का गढ़वाल विजयरथ रोक दिया।

    परसोली भवन की आकृत्ति चोकोर है। इसके बारे में राकेश रावत बताते हैं कि किले के अंदर आंगन 45×45 फीट है! यह किला दो मंजिला है और इस पर लगभग 32 कमरे थे, इसमें जेल और घुड़साल भी अंदर ही है। वहीं, जगमोहन रावत बताते हैं कि इसके मुख्यद्वारों के ऊपर तिबारियां हैं। जेल के ऊपर बनी तिबारी का बरामदा खुला रखा गया और दो मंजिला अंदरूनी भाग खम्ब शैली से निर्मित है। सिर्फ जेल का कमरा ही अंडरग्राउंड है। भूतल के एक हिस्से में घुड़साल है। पुराने लोग कहते हैं कि यहीं कहीं से सुरंग का रास्ता भी निकलता था जिसका आज अनुमान नहीं है।

    …कहानी एक रौतेली की

    आठ अगस्त 1661 को पौड़ी के चौंदकोट के गुराड़ के भूप सिंह गोर्ला रावत और मैणावती रानी के घर जन्मी थी तीलू। भूप सिंह गढ़वाल नरेश फतेहपति शाह के दरबार में सम्मानित थोकदार थे। तीलू के दो भाई भगतु और पत्वा थे। 15 वर्ष की उम्र में ईडा, चौंदकोट के थोकदार भूम्या सिंह नेगी के पुत्र भवानी सिंह के साथ धूमधाम से तीलू की सगाई कर दी गई। 15 वर्ष की होते-होते गुरु शिबू पोखरियाल ने तीलू को घुड़सवारी और तलवार बाजी में निपुण कर दिया था। उस समय गढ़नरेशों और कत्यूरियों में पारस्परिक प्रतिद्वंदिता चल रही थी। कत्यूरी नरेश बीरमदेव ने जब गुजड़ूगढ़ पर आक्रमण किया तो गढ़नरेश मानशाह ने थोकदार भूप सिंह को दुश्मन से लड़ने का आदेश दिया। उस समय अन्य थोकदारों ने भूप सिंह का साथ नहीं दिया। भूप सिंह ने डटकर आक्रमणकारियों का मुकाबला किया लेकिन इस युद्ध में वे अपने दोनों बेटों भगतु, पत्वा और तीलू के मंगेतर भवानी सिंह के साथ वीरतापूर्वक लड़ते हुए शहीद हो गए।

    पिता, दोनों भाइयों और मंगेतर की शहादत के बाद 15 साल की तीलू रौतेली ने कमान संभाली। तीलू ने अपने मामा रामू भंडारी, सलाहकार शिवदत्त पोखरियाल, सहेलियों/भाभियों देवकी, वेलू और सरू के साथ मिलकर एक सेना का गठन किया। इस सेना के सेनापति गोरख संप्रदाय के गुरु गौरीनाथ थे। उनके मार्गदर्शन से सैकड़ों युवाओं ने प्रशिक्षण लेकर छापामार युद्ध कौशल सीखा। तीलू अपनी सहेलियों के साथ मिलकर दुश्मनों को पराजित करने निकल पड़ी। उन्होंने सात साल तक लड़ते हुए खैरागढ, टकौलीगढ़, इंडियाकोट, भौनखाल, उमरागढ़ी, सल्ट महादेव, मासीगढ़, सराईखेत, उफरईखाल, कलिंकाखाल, डुमैलागढ और चौखुटिया सहित 13 किलों पर विजय पाई। तीलू की भाभियां, जिन्हें अक्सर सहेलियां कहा जाता था, युद्ध के दौरान मारी गईं। कहा जाता है कि देवकी, वेलू और सरू ने जहां-जहां जान दी, उन्हीं के नाम पर इलाकों के नाम पढ़े, जैसे देवकी के नाम पर देघाट, वेलू के नाम पर बेलाघाट और सरू के नाम पर सराईखेत नाम पड़ा। 15 मई 1683 को विजय जुलूस के दौरान तीलू अपने अस्त्र शस्त्र को नयार नदी के तट पर रखकर नहाने उतरी, तभी दुश्मन के एक सैनिक ने उसे धोखे से मार दिया।

     

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